Book Title: Vaishali Institute Research Bulletin 7
Author(s): Nand Kishor Prasad
Publisher: Research Institute of Prakrit Jainology & Ahimsa Mujjaffarpur
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Vaishali Institute Research Bulletin No. 7
२८. तीर्थकृता राज्यादिवान परिहार अष्टक
___ तीर्थंकरों द्वारा अपने गृहस्थ जीवन के राज्य आदि को त्यागना या दान दे देना दोषयुक्त नहीं है। क्योंकि यह लौकिक व्यवस्था है । इससे जीवों की रक्षा में सहयोग होता है । २९. सामायिक अष्टक
सामायिक मोक्ष का अंग है। सर्वज्ञ के द्वारा इसे वासीचन्दन की तरह की तरह सर्वश्रेष्ठ कहा गया है । सामायिक दोषमुक्त और सभी योगों को शुद्ध करने वाली है। लोकदृष्टि से सामायिक चित्त को प्रसन्न बनाती है और मोह को दूर कर सद्बुद्धि प्रदान करती है । बौद्धपरम्परा में जो कुशलचित्त को निर्वाण का अंग कहा है, उसमें जो दोष है उसकी ओर भी यहां संकेत किया गया है। ३०. केवलज्ञान अष्टक
सामायिक से विशुद्ध, घातिया कर्मों से रहित आत्मा लोकालोक को प्रकाशित करने वाले केवलज्ञान को प्राप्त करती है ।' आत्मा का स्वरूप केवलज्ञान के द्वारा रत्ल की तरह स्वयं प्रकाशमान हो जाता है। संसार में ऐसी कोई वस्तु नहीं है जो केवलज्ञान में न झलकती हो । यहाँ विभिन्न प्रकार से केवलज्ञान का स्वरूप कहा गया है। ३१. तीर्थकर देशना अष्टक
___ तीर्थकर नामक्रम के उदय से वीतराग प्रभु धर्मदर्शन में प्रवृत्त होते हैं । वे संसार के अज्ञानी जीवों को सद्धर्म में लगाते हैं। उनका एक-एक वचन हितकारी होता है । यदि कोई अभव्य उनकी देशना से लाभान्वित न हो तो इसमें भगवान् का दोष नहीं है। जैसे सूर्य प्रकाशित होकर सबका अन्धकार दूर करता है, किन्तु उल्लू सूर्य के प्रकाश को नहीं देख पाता । अतः तीर्थ-देशना जीवों के लिये आज भी आनन्ददायक है । ३२. मोक्षस्वरूप अष्टक
मोक्ष जन्म-मृत्यु से रहित, सभी बाधाओं से मुक्त, पूर्णतः सुखकारी एवं सर्वथा कर्मों से रहित अवस्था है। यहाँ पर न कोई दुःख है, न कोई अभिलाषा है, न कोई हीनता है, अतः वह परमपद है। कुछ लोग मोक्ष के सुख की लौकिक-सुख के साथ तुलना करके अनेक तर्क देते हैं; वह ठीक नहीं है । मोक्ष का सुख तो योगियों के द्वारा ही संवेद्य है । उसको व्यक्त करना सम्भव नहीं है।
मूल्यांकन अष्टक-प्रकरण की उपयुक्त विषयवस्तु को देखने से ज्ञात होता है कि हरिभद्रसूरि ने अपने समय में धार्मिक जीवन में उपस्थित होने वाले सभी प्रश्नों को इसमें समेट लिया है।
१. सामायिक विशुद्धात्मा, सर्वथा घातिकर्मणः । क्षयात्केवलमाप्नोति, लोकालोकप्रकाशकम् ॥ (३०.१)
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