Book Title: Vaishali Institute Research Bulletin 7
Author(s): Nand Kishor Prasad
Publisher: Research Institute of Prakrit Jainology & Ahimsa Mujjaffarpur
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Vaishali Institute Research Bulletin No. 7
अब यदि ज्ञान क्षण को उपादान मान कर विज्ञान से अभिन्न हेतु जन्य सिद्ध करना चाहते हैं तो यह भी असिद्ध है, क्योंकि आत्मद्रव्य ही सुख आदि में उपादान होता है । पर्यायों का दूसरी पर्यायों की उत्पत्ति में उपादानत्व कभी भी नहीं देखा गया है। अन्तरंग अथवा वाह्य द्रव्य में ही उपादानत्व बनता हैं। कहा भी है-"जो द्रव्य पूर्व और उत्तर पर्यायों में तीनों कालों में वर्तमान रहता है, वही द्रव्य माना गया है । आत्मा पूर्वोत्तर पर्यायों और तीनों कालों में रहने के कारण द्रव्य है।"
अब यदि माना जाय कि सुखादि में ज्ञान-अभिन्न हेतुजन्य सहकारी कारण की अपेक्षा से है तो यह भी कथन मात्र है। यहां चक्षु आदि के द्वारा अनेकान्तिक दोष का प्रतिपादन होता है। यदि सुख आदि ज्ञान से सर्वथा अभिन्न हैं तो ज्ञान की तरह सुख आदि को भी अर्थ का प्रकाशक होना चाहिए लेकिन ऐसा होता नहीं है। ज्ञान तो स्व पर प्रकाशक होता है और सुख आदि अपने प्रकाश में ही नियत (निश्चित) है ऐसा सभी को अनुभव होता है । अतः विरुद्ध धर्मों को अध्यास होने से इनमें अभेद कैसे हो सकता है ? जहाँ विरुद्ध धर्मों का अध्यास है वहीं अभेद नहीं है। जैसे जल, अग्नि । ज्ञान, सुख आदि में भी विरुद्ध धर्मों का अध्यास है इसलिए उनमें भी अभेद नहीं है। इस प्रकार सुख आदि में ज्ञानस्वरूप सिद्ध नहीं होता है ।
अतः सिद्ध है कि चित्र अद्वैतवाद नामक सिद्धान्त भी तर्कतंगत नहीं है ।
१. (क) न्यायकुमुदचन्द्र पृ० १३० (ख) स्याद्वादरत्नाकर पृ० १७९ । २. (क) वही। (ख) बाहिश्चित्रं रूपं तविदमधुना सिद्धि सदनं
समारोपि प्रौढस्फुरदतुयुचितव्यतिकरात् । धियं चित्रमेकां तत् इह कथं बाह्यविरहे प्रवद्येत्वे यूयं प्रमितिरहितं भोकुगतयः ।। स्या० र० पृ० १७९ ।
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