Book Title: Vaishali Institute Research Bulletin 7
Author(s): Nand Kishor Prasad
Publisher: Research Institute of Prakrit Jainology & Ahimsa Mujjaffarpur
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___Vaishali Institute Research Bulletin No. 7
जो दृश्य होकर के उपलब्ध नहीं होता है वह वहां नहीं है, जैसे कहीं पर अविद्यमान घट । व्यक्ति शून्य देश में दृश्य सामान्य भी उपलब्ध नहीं होता है । अर्थात् गोत्व सामान्य किसी गोव्यक्ति में दृश्य होकर भी अश्वादि व्यक्तियों में तथा व्यक्तिशून्य देश में उपलब्ध नहीं होता है । इसलिए सामान्य सर्वगत नहीं है ।
उक्त अनुपलम्भ प्रयोग और स्वभाव परस्पर में विरुद्ध अर्थ की सिद्धि करने के कारण एक वस्तु के विषय में संशय उत्पन्न करते हैं।' क्योंकि एक ही वस्तु परस्पर विरुद्ध स्वभाव वाली नहीं हो सकती है। एक हेतु के द्वारा सामान्य को सर्वगत और दूसरे के द्वारा असर्वगत सिद्ध किया गया है। किन्तु एक ही सामान्य में परस्पर विरुद्ध सर्वगतत्व और असर्वगतत्व धर्म नहीं रह सकते हैं। अतः आगमसिद्ध सामान्यविषयक सर्वगतत्व और असर्वगतत्व धर्मों को लेकर उक्त दोनों हेतु मिलकर विरुद्धाव्यभिचारी हो जाते है। इस प्रकार इस दोष का सम्भव अवस्तु दर्शन के बल से प्रवृत्त अनुमान में ही होता है, वस्तुविषयक अनुमान में नहीं ।
विरुद्ध हेत्वाभास सपक्षसत्त्व और विपक्षासत्त्व इन दो रूपों की विपर्यय सिद्धि में विरुद्ध हेत्वाभास होता है । जैसे शब्द को नित्य सिद्ध करने में कृतकत्व अथवा प्रयत्नानन्तरीयकत्व विरुद्ध हेत्वाभास है । क्योंकि कृतकत्व अथवा प्रयत्ननान्तरीयकत्व सपक्ष (नित्य) में नहीं रहता है किन्तु विपक्ष (अनित्य) में रहता है । अतः साध्य (नित्य) से विपरीत (अनित्य) की सिद्धि करने के कारण कृतकत्व विरुद्ध नाम का हेत्वाभास है।
आचार्य दिग्नाग ने इष्टविघातकृत् नामक एक पृथक् विरुद्ध हेत्वाभास माना है। किन्तु धर्मकीति ने उमे पृथक् नहीं माना है । इष्टविधातकृत का उदाहरण
चक्षुरादि इन्द्रियों पर (आत्मा) के लिए है, संघात होने से, शयन, आसन आदि की तरह । इस अनुमान से सांख्य ने आत्मा की सिद्धि की है। यहाँ उसे आत्मा में असंहतपारार्थ्य इष्ट है । किन्तु यह हेतु संहतपारार्थ्य की सिद्धि करता है। इन्द्रियाँ पर (आत्मा) के लिए हैं यह तो ठीक है किन्तु वह पर असंहत है या संहत (परमाणु संचयरूप)। सांख्य आएमा को असंहत मानता है । किन्तु यह हेतु आत्मा में संहतत्व की सिद्धि करता है। क्योंकि जो जिसका उपकारक होता है वह उसका जनक होता है और जो जन्य है वह संहत होता है । १. अयमनुपलम्भप्रयोगः स्वभावश्च परस्परविरुद्धार्थसाधनादेकत्र संशयं जनयतः ।
-न्यायबि० पू० ९० । *, द्वयो रूपयोविपर्ययसिद्धौ विरुद्धः । यथा कृतकत्वं प्रयत्नानन्तरीयकत्वं च नित्यत्वे
साध्ये विरुद्धो हेत्वाभासः । उभयोः सपक्षेऽसत्त्वमसपक्षे च सत्त्वमिति विपर्ययसिद्धिः । एतौ च साध्यविपर्ययसाधनाविरुद्धौ । -न्यायबि० पृ० ७८ । परार्थश्चक्षुरादयः संघातत्वात् । शयनासनाद्यङ्गवत् । -न्यायबि० पृ० ७९ । नहीष्टोक्तयोः साध्यत्वेन कश्चिद्विशेषः । न्यायबिन्दु पृ० ८० ।
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