Book Title: Vaishali Institute Research Bulletin 7
Author(s): Nand Kishor Prasad
Publisher: Research Institute of Prakrit Jainology & Ahimsa Mujjaffarpur
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Vaishali Institute Research Bulletin No, 7
पर पीत आदि भागों का ग्रहण नहीं होगा, क्योंकि उन पीत आदि भागों का उससे भेद हो जाएगा। यह एक नियम है कि जिसके ग्रहण करने पर जो गृहीत नहीं होता है, वह उससे भिन्न है । जैसे मेरु पर्वत के ग्रहण करने पर विन्ध्याचल गृहीत नहीं होता, इसलिए वे भिन्नभिन्न हैं। इसी प्रकार नील भाग के ग्रहण करने पर पीत-आदि भागों का ग्रहण नहीं होता है । एक बात यह भी है कि विरुद्ध धर्मों की प्रतीति (अध्यास) होने के कारण अवयवी में भी एकरूपता नहीं बन सकती है । जिसमें विरुद्ध धर्मों का अध्यास होता है उसमें एकरूपता नहीं होती है, जैसे जल, अग्नि आदि । अवयवी में भी ग्रहण-अग्रहण रूप विरुद्ध धर्मों का अध्यास होता है, इसलिए उसमें भी एकरूपता नहीं है। यदि नील भाग, पीत आदि भाग रूप है तो इसका तात्पर्य यह हुआ कि पीत आदि के ग्रहण में नील आदि का भी अग्रहण होगा। क्योंकि जो जिस रूप होता है उसके अग्रहण में वह भी ग्रहीत नहीं होता है, जैसे पीत आदि के अग्रहण में उसके स्वरूप का भी ग्रहण नहीं होता है । नील भी पीत आदि रूप है, इसलिए पीत आदि के अग्रहण में नील आदि का भी ग्रहण नहीं होगा।
चित्रपट आदि को सांश एक वस्तु मानने में दोष-यदि चित्रपट आदि को निरंश एक वस्तु न मानकर उससे विपरीत सांश वस्तु माना जाय तो उसमें स्वयं चित्रता का अभाव विभिन्न आश्रयों में रहने वाले नील-पीत आदि की तरह सिद्ध हो जायेगा। इसलिए चित्रता अर्थ का धर्म नहीं है किन्तु ज्ञान का धर्म है ।'
अपने कारण कलाप से उत्पन्न विज्ञान (बुद्धि) अनेक आकार युक्त (खचित) ही उत्पन्न होता है और अनुभव में आता है, इसलिए चित्राकार ज्ञान ही एक तत्व है। इस प्रकार चित्राद्वैत सिद्ध होता है।
चित्र-अद्वैतवादी सांख्य दार्शनिकों के इस मत का निराकरण करता है कि सुखादि में ज्ञान स्वरूपता का अभाव होने से चित्रप्रतिभास वाला ज्ञान ही एक तत्व कैसे हो सकता है ?
चित्राद्वैतवादी कहता है कि सुखादि भी ज्ञान के अभिन्न हेतुओं से उत्पन्न होने के कारण ज्ञान रूप ही है । अतः सुखादि ज्ञानात्मक है । ज्ञान के अभिन्न हेतुओं से उत्पन्न होने के कारण, ज्ञानान्तर की तरह। इसी बात को प्रमाणवार्तिक में कहा भी है-"तदरूप पदार्थ तदरूप हेतुओं से उत्पन्न होते हैं और आतदंरूप पदार्थ आतदरूप हेतुओं से उत्पन्न होते हैं।" अतः विज्ञान (बुद्धि) से अभिन्न हेतुओं से उत्पन्न होने के कारण सुखादि अज्ञानरूप कैसे हो सकते हैं।
१. वही। २. (क) वही।
(ख) स्याद्वादरत्नाकर १।१६ कारिका १६५-१६६ पृ० १७४ । ३, न्याय कुमुदचन्द्र पृ० १२६ पर उद्धृत ।
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