Book Title: Vaishali Institute Research Bulletin 7
Author(s): Nand Kishor Prasad
Publisher: Research Institute of Prakrit Jainology & Ahimsa Mujjaffarpur
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चित्र-अद्वैतवाद : समीक्षात्मक विवेचन
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चित्राद्वैतवाद की मीमांसा न्याय-वैशेषिक आदि भारतीय दार्शनिकों की तरह जैन दार्शनिक भट्ट अकलंक देव, आ० विद्यानन्द वादिराज, प्रभाचन्द्र वादिदेव सूरि यशोविजय आदि ने चित्राद्वैतवाद का तर्कपूर्ण निराकरण किया है।'
जैन दार्शनिक सर्वप्रथम चित्राद्वैतवादियों से यह कह रहे हैं कि बाह्य पदार्थ की सत्ता निराकार ज्ञान से सिद्ध होती है। जैन दर्शन में साकार ज्ञान को प्रमाण नहीं माना गया है। निराकार ज्ञान ही योग्यता के द्वारा प्रत्येक कार्य की व्यवस्था में हेतु होता है। इसलिए चित्राद्वैतवाद का यह कथन असत्य है कि निराकार ज्ञान सर्वत्र समान होने से प्रत्येक कर्म की व्यवस्था में हेतु नहीं हो सकता है ।
एक बात यह भी है कि जो प्रकाशक होता है उसमें पूर्वभाव, उत्तरभाव और सहभाव का नियम नहीं होता है। उदाहरणार्थ कहीं पर पूर्व में विद्यमान आगे होने वाले पदार्थों का प्रकाशन होता है। जैसे सूर्य उत्पन्न होने वाले पदार्थों का प्रकाशक होता है। कहीं पर पूर्व में विद्यमान पदार्थों का आगे होने वाला प्रकाशक होता है । जैसे-मकान के अन्दर स्थित घट आदि पदार्थों का बाद में होने वाला दीपक प्रकाशक होता है। कहीं पर सहभावी भी पदार्थों का प्रकाशक होता है। जैसे कृतकत्वादि अनित्य आदि का प्रकाशक होते हैं । इसलिए प्रमाण पूर्वा पर-सहभाव नियम निरपेक्ष होकर वस्तु को प्रकाशित करता है, क्योंकि वह सूर्य की तरह प्रकाशक है । अतः चित्राद्वैत-वादियों का यह कथन ठीक नहीं है कि प्रमेय से पूर्वकाल में होने वाला ज्ञान बाह्य अर्थ का प्रकाशक है अथवा उत्तरकाल अथवा सहभावी ।
अशक्य विवेचनत्व क्या है-आचार्य विद्यानन्द, वादिराज, प्रभाचन्द्र आदि चित्रअद्वैतवादियों से प्रश्न करते हैं कि आपने जो यह कहा है कि बुद्धि (ज्ञान) के आकारों का विवेचन (पृथक्करण) करना सम्भव नहीं है तो आप बतलायें कि ऐसा क्यों है ? अर्थात् अशंक्य विवेचनत्व क्या है ? क्या वे नीलादि आकार ज्ञान से अभिन्न है । अथवा ज्ञान के साथ उत्पन्न नील आदि का ज्ञानान्तर (दूसरे ज्ञान) को छोड़कर उसी ज्ञान से अनुभव होना है अथवा भेदपूर्वक (भेद करके) विवेचन के अभाव मात्र का होना अशक्य विवेचनत्व है ? उपर्युक्त तीन विकल्पों में से प्रथम विकल्प-नील आदि आकार ज्ञान से अभिन्न होने के कारण
१. (क) आ० विद्यानन्द तत्त्वार्थ श्लोकवार्तिक, १५१ पृ० ३६-३८ । (ख) प्रमा० च० प्रमेय कमलमार्तण्ड, ११५ पृ० ९५-९८ । (ग) न्याय कुमुदचन्द्र ११५ पृ० १२२-१३० । (घ) वादिदेव सूरि : स्यावाद रत्नाकर १६१६ पृ० १७४-१७९ । (ङ) वादिराजसूरि : न्या० विनिश्चय-विवरण प्र० प्रत्यक्ष प्रस्ताव
पृ० ३७३-३७४। २. (क) प्रमेय कमलमार्तण्ड, १५, पृ० ९५ ।
(ख) न्याय कुमुदचन्द्र, ११५ पृ० १२७ ।
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