Book Title: Vaishali Institute Research Bulletin 7
Author(s): Nand Kishor Prasad
Publisher: Research Institute of Prakrit Jainology & Ahimsa Mujjaffarpur
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Vaishali Institute Research Bulletin No. 7
प्रमेय से पहले काल में होनेवाले ज्ञान को बाह्य पदार्थों का व्यवस्थापक मानना ठीक नहीं है। क्योंकि यह इन्द्रिय और पदार्थ के सन्निकर्ष से उत्पन्न नहीं होगा। प्रमेय पदार्थों के होने पर ही ज्ञान का सन्निकर्ष हो सकता है, किन्तु प्रमेय से पूर्वभावी ज्ञान की उत्पत्ति प्रमेय के बिना ही की जाती है। जो ज्ञान प्रमेय के बिना ही उत्पन्न हो जाता है, वह इन्द्रियार्थ सन्निकर्ष से उत्पन्न नहीं होता है। जैसे आकाश-कमल का ज्ञान इन्द्रियार्थ सन्निकर्ष से उत्पन्न नहीं होता है। इसी प्रकार बाह्य पदार्थ के व्यवस्थापक के रूप में स्वीकार किया गया प्रमेय से पूर्वकाल भावी ज्ञान भी प्रमेय के बिना उत्पन्न हो जाता है, इसलिए वह सन्निकर्ष-जन्य नहीं होता है । अतः उससे बाह्य पदार्थों की व्यवस्था नहीं हो सकती है।
प्रमेय से उत्तरकाल में होने वाले ज्ञान को बाह्य पदार्थों का व्यवस्थापक मानने पर दो विकल्प होते हैं-प्रमाण से पहले प्रमेय की विद्यमानता है, इसे (पूर्वकालवृत्ति) किसी से जाना अथवा नहीं ?' यदि प्रमाण से पहले प्रमेय की विद्यमानता है, इसे नहीं जाना है, तो वह सत्य का विषय कैसे होगा ? क्योंकि यह नियम है कि जो सत् व्यवहार (सत्य) का विषय होता है, वह किसी से जाना जाता है । जो किसी से जाना नहीं जाता है, वह व्यवहार (सत्य) का विषय नहीं होता है। जैसे आकाश का कमल किसी से नहीं जाना गया इसलिए वह सत्य का विषय नहीं होता है। प्रमाण से प्रमेय की पूर्वकालवृत्ति है ऐसा भी किसी से नहीं जाना गया है। अतः प्रमेय से उत्तरकाल में उत्पन्न होने वाले ज्ञान को बाह्य पदार्थों का व्यवस्थापक नहीं माना जा सकता है।
अब यदि बाह्य पदार्थवादी यह माने कि प्रमाण से पूर्व प्रमेय की विद्यमानता है, इसे किसी से जाना गया है तो उन्हें बतलाना होगा कि वह किससे जाना गया है। स्वतः अथवा परतः ?२ यदि स्वतः आना गया है तो बाह्यार्थ और ज्ञान में भेद नहीं होगा। क्योंकि स्वतः प्रकाशमान होने से वह पूर्ववर्ती प्रमेय ज्ञान रूप हो जायेगा। यह नियम है कि जो स्वतः प्रसिद्ध है वह ज्ञान से भिन्न नहीं है, जैसे ज्ञान का स्वरूप । ज्ञान से पूर्व में होने वाला प्रमेय भी स्वतः प्रसिद्ध है। उस पूर्ववर्ती प्रमेय की जानकारी (प्रतिपत्ति) पर (अर्थात्-अपने भिन्न किसी अन्य) से नहीं हो सकती है, क्योंकि प्रमाण से भिन्न दूसरा पदार्थ प्रमेय की व्यवस्था का कारण नहीं है । एक बात यह भी है कि प्रमेय की पूर्वकालवृत्ति को उत्तरवर्ती प्रमाण प्रकाशित नहीं कर सकता है, क्योंकि प्रमेयकाल में प्रमाण नहीं रहता है। जो जिस काल में नहीं है वह उसका प्रकाशक नहीं होता है। जैसे अपनी उत्पत्ति से पूर्वकालवृत्ति पदार्थ के काल में नहीं होने वाला दीपक उसका प्रकाशक नहीं होता है। पूर्वकाल विशिष्ट प्रमेय के काल में ज्ञान भी नहीं होता है, इसलिए वह उसका प्रकाशक नहीं हो सकता है।
अब यदि प्रमाण (ज्ञान) और प्रमेय (ज्ञेय) को समकालीन माना जाय तो जिस प्रकार गाय के बायें और दाहिने सींग एक साथ उत्पन्न होने पर वे ग्राह्य-ग्राहक रूप
१. वही। २. अथ प्रतिपन्नम् किं स्वतः परतो वा ? वही ।
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