Book Title: Vaishali Institute Research Bulletin 7
Author(s): Nand Kishor Prasad
Publisher: Research Institute of Prakrit Jainology & Ahimsa Mujjaffarpur
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Vaishali Institute Research Bulletin No. 2
शब्द' नित्य है, संयोग से व्यङ्गच होने के कारण, रूप की तरह । यहाँ संयोग व्यंग्यत्व हेतु कालातीत है। क्योंकि प्रदीप और घट का संयोग होने पर रूप का ग्रहण होता है और संयोगी की निवृत्ति होने पर रूप का ग्रहण नहीं होता है। किन्तु दास और परशु के संयोग की निवृत्ति हो जाने पर भी दूरस्थ व्यक्ति के द्वारा शब्द सुनाई पड़ता है। इस प्रकार शब्द की व्यक्ति (ग्रहण) संयोगकाल का उल्लंघन करके भी होती है। अतः वह व्यक्ति संयोगजन्य नहीं है।
___ इस हेत्वाभास के विषय में भी प्राचीन और नवीन नैयायिकों में मतभेद है । भाष्यकार और वातिककार के अनुसार शब्द की उपलब्धिकाल में संयोग के अभाव में भी शब्द का ग्रहण होता है । अतः संयोगव्यंग्यत्व हेतु कालात्ययापदिष्ट है।
नवीन मत के अनुसार तो जहाँ प्रत्यक्ष, अनुमान और आगम से विरोध या बाधा आती है वहाँ हेतु कालातीत होता है। अतः नवीन मत के अनुसार कालातीत का ही दूसरा नाम बाधित है । 'अग्नि अनुष्ण है, द्रव्य होने से', 'शब्द अश्रावण है, गुण होने से', 'नर के शिर का कपाल पवित्र है, प्राणी का अंग होने से' । इन हेतुओं का साध्य क्रमशः प्रत्यक्ष, अनुमान और आगम से बाधित होने के कारण ये कालात्ययापदिष्ट या बाधित हेत्वाभास है। यहाँ कालात्ययापदिष्ट शब्द की सार्थकता इस बात में है कि प्रत्यक्षादि प्रमाण से विपरीत निर्णय हो जाने के कारण संदेह विशिष्ट काल का उल्लंबन करके उक्त हेतुओं का प्रयोग किया जाता है।
नवीन मत के अनुसार तर्कसंग्रह में हेत्वाभासों के पांच नाम इस प्रकार हैंसव्यभिचार, विरुद्ध, सत्प्रतिपक्ष, असिद्ध और बाधित ।
सव्यभिचार (अनैकान्तिक) के साधारण, असाधारण और अनुपसंहारी के भेद से तीन भेद होते हैं । जो हेतु साध्याभाव में भी रहता है वह साधारणानै कान्तिक है । जैसे पर्वत वह्निमान् है, प्रमेय होने से । यहाँ प्रमेयत्वहेतु पक्ष, सपक्ष और विपक्ष तीनों में रहने के कारण साधारण अनैकान्तिक है । जो हेतु सपक्ष और विपक्ष में न रहकर केवल पक्ष में रहता है वह
१. यथा नित्यः शब्दः संयोगव्यङ्ग्यत्वात् रूपवत् । सति प्रदीपघटसंयोगे रूपं गृह्यते, न निवृत्ते संयोगे रूपं गृह्यते । किन्तु निवृत्ते दासपरशुसंयोगे दूरस्थेन शब्दः श्रूयते । सेयं शब्दस्य व्यक्तिः संयोगकालमत्येतीति न संयोगजनिता भवति ।
-न्यायभाष्य पृ० १८७ २. 'नित्यः शब्दः संयोगव्यंग्यत्वात्' इत्यत्र शब्दस्योपलब्धिकाले संयोगो नास्तीति भवत्ययं कालात्ययापदिष्ट इति भाष्यवार्तिकयोः स्पष्टम् । नवीनमतेन तु यत्र प्रत्यक्षानुमानागमविरोधः-अनुष्णोऽग्निद्रव्यत्वात्' 'अश्रावणः शब्दो गुणत्वात्', 'शुचिनरशिरः कपालं प्राण्यङ्गत्वात्' इति च सर्वः प्रमाणतो विपरीतनिर्णयेन सन्देहविशिष्टं कालमतिपततीति सोऽयं कालात्ययेनापदिश्यमानः कालातीत इति तात्पर्ये स्पष्टम् ।
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