Book Title: Vaishali Institute Research Bulletin 7
Author(s): Nand Kishor Prasad
Publisher: Research Institute of Prakrit Jainology & Ahimsa Mujjaffarpur
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बौद्धन्याय और गौतमीय न्याय में हेत्वाभासों का स्वरूप
हेतु के अन्वय और व्यतिरेक दोनों संदिग्ध होते हैं उससे न साध्य का निश्चय होता है और न उसके विरुद्ध का ।
इस प्रकार अनैकान्तिक हेत्वाभास के साधारण, असाधारण, संदिग्धविपक्षव्यावृत्तिक, संदिग्धान्वयासिद्धव्यतिरेक आदि भेद होते हैं ।
यहाँ एक बात विचारणीय है कि आचार्य दिग्नाग ने विरुद्धाव्यभिचारी की भी संशय का कारण कहा है, उसे धर्मकीर्ति ने क्यों नहीं कहा। इसका उत्तर यह है कि अनुमान के विषय में विरुद्धाव्यभिचारी संभव नहीं है । अनुमान का विषय प्रमाणसिद्ध वैरूप्य है और विरुद्धाव्यभिचारी का रूप प्रमाण सिद्ध नहीं है । क्योंकि कार्य, स्वभाव और अनुपलब्धि में विरुद्धता का संभव नहीं है और इन तीनों के अतिरिक्त अन्य कोई अव्यभिचारी नहीं है ।
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तब प्रश्न यह है कि आचार्य दिग्नाग ने यह हेतु दोष कहाँ बतलाया है ? इसका उत्तर धर्मकीर्ति ने यह दिया है कि अवस्तुदर्शन के बल से प्रवृत्त आगमाश्रय अनुमान के द्वारा उस आगम के अतीन्द्रिय अर्थ सामान्य आदि के विचार के प्रकरण में विरुद्धाव्यभिचारी दोष कहा गया है ।' अर्थात् वस्तु बलप्रवृत्त अनुमान में यह दोष नहीं हो सकता है ।
freatorfभचारी का उदाहरण
कणाद के शिष्य पैलुक ने सामान्य को सर्वगत सिद्ध करने के लिए निम्न प्रकार से स्वभावहेतु का प्रयोग किया है ।
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जो सर्वदेश में अवस्थित अपने सम्बन्धियों से सम्बद्ध होता है वह सर्वगत है, जैसे कि आकाश । सामान्य भी सर्वदेश में अवस्थित अपने सम्बन्धियों से युगपत् सम्बद्ध होता है । अतः वह सर्वगत है । कणाद महर्षि सामान्य को निष्क्रिय, दृश्य और एक कहा है और वह अपने सब सम्बन्धियों के साथ समवाय सम्बन्ध से एक साथ सम्बद्ध होता है । क्योंकि जो जहाँ नहीं है वह उस देश को अपने द्वारा व्याप्त नहीं कर सकता है । इस प्रकार उक्त हेतु द्वारा सामान्य को सर्वगत सिद्ध किया गया है । अर्थात् सामान्य व्यक्तियों में तो रहता ही है किन्तु व्यक्ति शून्य देश में भी रहता है ।
उक्त स्वभाव हेतु के विरुद्ध सामान्य को असर्वगत सिद्ध करने के लिए अनुपलब्धि हेतु का प्रयोग इस प्रकार किया जाता है । 3
१. तस्मादवस्तुदर्शनबलप्रवृत्त मागमाश्रयमनुमानमाश्रित्य तदर्थविचारेषु विरुद्धाव्यभिचारी साधनदोष उक्तः । —न्यायबि० पृ० ८७ ।
२. तत्रोदाहरणं यत्सर्वदेशावस्थितैः स्वसम्बन्धिभिः सम्बध्यते तत्सर्वगतं यथाकाशम् । अभिसम्बध्यते सर्वदेशावस्थितैः स्वसम्बन्धिभिर्युगपत्सामान्यमिति । नहि यो यत्र नास्ति स तद्देशमात्मना व्याप्नोतीति स्वभावहेतुप्रयोगः । - न्यायबि० पृ० ८८ । ३. द्वितीयोऽपि प्रयोगो यदुपलब्धिलक्षणप्राप्तं सन्नोपलभ्यते न तत्तत्रास्ति । तद्यथा क्वचिदविद्यमानो घटः । नोपलभ्यते चोपलब्धिलक्षणप्राप्तं सामान्यं व्यक्त्यन्तरालेविति । न्यायबिन्दु पृ० ।
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