Book Title: Vaishali Institute Research Bulletin 7
Author(s): Nand Kishor Prasad
Publisher: Research Institute of Prakrit Jainology & Ahimsa Mujjaffarpur
View full book text
________________
जनमत में ईश्वरत्व की अवधारणा
57
आदर्श हमेशा निरपेक्ष एवं पूर्ण रूप होता है । आदर्श की स्थापना के लिए ही मानव-जीवन के आदर्श रूप में तीर्थंकरों को ईश्वर का रूप दे दिया गया है जिसकी प्रेरणा से कोई भी साधना पथ पर चलकर ईश्वरत्व की प्राप्ति कर सके। तीर्थकर मार्ग प्रदर्शन के लिए आदर्श का काम करते हैं।'
IV उपर्युक्त विवेचना से यह स्पष्ट हो जाता है कि जैन धर्म में ईश्वरवादियों की तरह स्रष्टा के रूप में ईश्वर को भले ही न माना गया है लेकिन तीर्थंकरों में ईश्वरत्व की स्थापना की गई है। ईश्वरोचित गुणों का अभिधान भी किया गया है। जैन धर्म में ईश्वरत्व की अवधारणा से निम्नलिखित तथ्यों पर प्रकाश पड़ता है-(१) मानव की शक्ति का विकास (२) कर्मवादिता (३) धैर्य एवं साधना का महत्व (४) आत्मा एवं परमात्मा का तादात्म्य सम्बन्ध (५) परम मानवीय मूल्यों की स्थापना (६) परमपुरुषार्थ रूप निर्वाण प्राप्ति की ओर ले जाने का प्रयास (७) मानव का ईश्वरीकरण करने की अवधारणा (८) मानववादी दृष्टिकोण (मानवतावाद की स्थापना)। निष्कर्ष तौर पर यह कहा जा सकता है कि जैन धर्म में ईश्वरत्व की स्थापना धर्म एवं नैतिकता दोनों की मांग है। अगर ईश्वरत्व की स्थापना को नकारा जाय तो फिर उपर्युक्त सिद्धान्तों की चरितार्थता को जैनमत सिद्ध नहीं कर सकता। धर्म के केन्द्र विन्दु में मानव की स्थापना कर उसको उदातीकरण की प्रक्रिया से ईश्वरत्व प्रदान करना जैन धर्म की ही विशेषता हो सकती है । मानव भगवान हो सकता है । बशर्ते वह अपने स्व को पहचान ले । आत्मा और परमात्मा में कोई स्वरूप भेद नहीं है । मानवताबाद का सहो चित्रण हमें जैनमत में प्राप्त होता है ।
१. भारतीय दर्शन-दत्ता और चटर्जी पृ० ७४ ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org