Book Title: Vaishali Institute Research Bulletin 7
Author(s): Nand Kishor Prasad
Publisher: Research Institute of Prakrit Jainology & Ahimsa Mujjaffarpur
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Vaishali Institute Research Bulletin No. 7 इस तप की सहायता से आशा, लोलुपता आदि का नाश होता है तथा धैर्य में वृद्धि होती है। धवला के अनुसार इन्द्रिय संयम तथा भोजनादि के प्रति रागवृति को सर्वथा दूर करने के लिए अवमौदर्य तप सहायक है।'
(iv) रसपरित्याग तप-समस्त प्रकार के रसों या सरस भोजन का त्याग करना रसपरित्याग तप है। मक्खन, घी, मिष्ठान्न आदि सरस आहार हैं। उमास्वाति के अनुसार
।, मांस मधु, मक्खन आदि रस विकृतियाँ हैं। उनका त्याग तथा विरस आहार को ग्रहण करना ही रस परित्याग तप है ।२ 'मूलाचार' में कहा गया है कि मक्खन तीव्र विषया अभिलाषा उत्पन्न करता है। मद्य पुनः पुनः स्त्री के साथ भोग कराता है। मांस दर्प पैदा करता है। मधु इन्द्रिय तथा प्राणि असंयम उत्पन्न करता है। अतः व्यक्ति को इन सबों का त्याग करना चाहिए क्योंकि उनके सेवन से अहिंसा और असंयम में वृद्धि उत्पन्न होती है जो कर्मबन्ध का कारण बनती है।
यह तप प्राणिसंयम और इंद्रिय संयम की प्राप्ति में सहायक होती है। क्योंकि इससे स्वादेन्द्रिय एवं अन्य समस्त इंद्रियों का निरोध हो जाता है। इससे व्यक्ति को संयम पर नियन्त्रण में सहायता मिलती है।
(v) विविक्तशय्यासन तप-बाधारहित एकान्त स्थान में निवास करना विविक्तशय्यासन तप है । 'तत्वार्थवातिक' के अनुसार-बाधानिवारण, ब्रह्मचर्य, स्वाध्याय और ध्यान आदि के लिए निर्जन, शून्य, एकान्त स्थान में रहना विविक्तशय्यासन तप कहलाता है।
इस तप की सहायता से ब्रह्मचर्य की साधना, कष्टसहिष्णुता, निर्भयता तथा निर्ममत्वभाव का अभ्यास किया जाता है । 'सूत्रकृतांग में कहा गया है कि इस तप का आचरण करने वाला व्यक्ति तिर्यञ्च, मनुष्य एवं देवकृत उपसर्गों से विचलित नहीं होता है और वह सामयिक समाधि की साधना कर सकता है ।
(vi) कायक्लेश तप-शरीर को क्षीण करने वाले तप को कायक्लेश तप कहा जाता है। 'उत्तराध्ययन सूत्र' में कहा गया है कि कायक्लेश का अर्थ है विभिन्न प्रकार के आसन आदि के द्वारा शरीर को सुस्थिर करना । इस तप साधना की पूर्णता के लिए कष्ट
१. धवला, १३१५, ४, २६५६१६ । २. तत्त्वार्थसूत्र, ९।१९। ३. मूलाचार, ३५२, ३५३, ३५४ । ४. धवला, १३।५, ४, २६१५७।१०। ५. आबाधात्ययबह्मचर्यस्वाध्यायध्यानादिप्रसिद्धयर्थविविक्तशय्यासनम् ।
॥९।१९।१२ ॥ तत्त्वार्थवातिक ६. उवणीयतरस्य ताइणो भयमाणस्स विविक्रमासणं । सामाइयमाहु तस्स जं जो अप्पाणं भए ण दंसए ॥
॥२॥२११७ ।। सूत्रकृतांग, प्रथय श्रुतस्कन्ध ७. उत्तराध्ययन सूत्र, ३०।२७ ।
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