Book Title: Vaishali Institute Research Bulletin 7
Author(s): Nand Kishor Prasad
Publisher: Research Institute of Prakrit Jainology & Ahimsa Mujjaffarpur
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बौद्धन्याय और गौतमीय न्याय में हेत्वाभासौ का स्वरूप
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असाधारण-जो हेतु केवल पक्ष में रहता है, किन्तु सपक्ष और विपक्ष से न्यावृत्त होता है वह असाधारण अनैकान्तिक है । जैसे शब्द नित्य है, श्रावण होने से। यहाँ श्रावणत्व हेतु नित्य और अनित्य दोनों से व्यावृत्त है तथा नित्य और अनित्य को छोड़कर अन्य कोई वस्तु है नहीं। अतः यह संशय होता है कि श्रावणत्व नित्य का धर्म है या अनित्य का। अर्थात् श्रावणत्व हेतु से शब्द में न नित्यत्व की सिद्धि होती है और न अनित्यत्व की।
सपक्षकदेशवृत्तिविपक्षव्यापी-शब्द अप्रयत्नानन्तरीयक है, अनित्य होने से । यहाँ अप्रयत्नानन्तरीयक विद्युत्, आकाश आदि सपक्ष हैं और प्रयत्नानन्तरीयक घटादि विपक्ष हैं। अनित्यत्व हेतु सपक्ष के एक देश विद्युत् आदि में रहता है, आकाश आदि में नहीं तथा घटादि सम्पूर्ण विपक्ष में रहता है। अतः यह संदेह होता है कि शब्द घर की तरह प्रयत्लानन्तरीयक है अथवा विद्युत् की तरह अप्रयत्नानन्तरीयक है । विपक्ष कदेशवृत्तिसपक्षव्यापी
शब्द प्रयत्लानन्तरीयक है, अनित्य होने से । यहाँ प्रयत्नानन्तरीयक घटादि सपक्ष है। अप्रयत्नानन्तरीयक विद्युत्, आकाशादि विपक्ष है । उक्त हेतु सम्पूर्ण सपक्ष में रहता है। साथ ही विपक्ष के एक देश विद्युत् आदि में भी रहता है, आकाश आदि में नहीं। अतः यह सन्देह होता है कि शब्द घट की तरह प्रयत्नानन्तरीयक है अथवा विद्युत् की तरह अप्रयत्ना. न्तरीयक है। उभयपक्षकदेशवृत्ति
यह हेतु सपक्ष और विपक्ष के एक देश में रहता है। जैसे शब्द निस्य है, अमूर्त होने से । यहाँ आकाश, परमाणु आदि सपक्ष है । अमूर्तत्व हेतु आकाशादि में रहता है, परमाणु आदि में नहीं। घट, सुखादि विपक्ष है । अमूर्तत्व हेतु सुखादि में रहता है, घटादि में नहीं । अतः यह सन्देह होता है कि शब्द आकाश को तरह नित्य है या सुख की तरह अनित्य है। विरुद्धाव्यभिचारी
- यहाँ एक नहीं किन्तु दो हेतु होते हैं। जैसे (१) शब्द अनित्य है, कृतक होने से, घट की तरह । (२) शब्द नित्य है श्रावण होने से शब्दत्व की तरह । यहाँ यह संशय होता है कि कृतक होने से शब्द अनित्य है या श्रावण होने से वह नित्य है। ये दोनों हेतु मिल करके एक विरुद्धाव्यभिचारी नामक अनेकान्तिक होते हैं । यह हेतु सत्प्रतिपक्ष की तरह ही है। अर्थात् न्यायदर्शन में इसे सत्प्रतिपक्ष के नाम से ही कहा गया है। जो साधनान्तरसिद्ध धर्म के विरुद्ध धर्म को सिद्ध करता है तथा अपने साध्य का अव्यभिचारी है वह विरुद्धाव्यभिचारी
कहलाता है।
हेत्वाभासों के उक्त भेद न्यायप्रवेश के आधार पर बतलाये गये हैं। अब न्यायबिन्दु के आधार से हेत्वाभास का स्वरूप तथा भेद बतलाये जाते है ।
१. विरुद्धश्चासौ साधनान्तरसिद्धस्य धर्मस्य विरुद्धसाधनादव्यभिचारी च स्वसाध्या
व्यभिचाराविरुद्धाव्यभिचारी । न्यायवि० पृ० ८६ ।
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