Book Title: Vaishali Institute Research Bulletin 7
Author(s): Nand Kishor Prasad
Publisher: Research Institute of Prakrit Jainology & Ahimsa Mujjaffarpur
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जैन धर्म में तप
के सुखों से अपेक्षारहित होकर आत्मध्यान और स्वाध्याय में लीन होकर कर्मक्षय के लिए काल परिमाण सहित सहज भाव से किया गया आहार त्याग अनशन तप है ।" इसके दो भेद है(क) इत्वारिक और (ख) यावज्जीवन | 2
(क) इत्यारिक अनशन -- इत्वारिक अनशन वह है जिसमें निर्धारित समय तक उपवास करने के बाद पुनः भोजन की आकांक्षा की जाती है ।
(ख) यावज्जीवन - जीवन पर्यन्त किया गया आहार त्याग यावज्जीवन अनशन है । प्राणिसंयम और इंद्रियसंयम की सिद्धि के लिए अनशन तप किया जाता है । क्योंकि दोनों ही प्रकार के असंयम का अविर्भाव भोजन के साथ ही देखा गया है । आहार त्याग करने से जीवन के प्रति ममत्व के भाव का त्याग हो जाता है । अर्थात् शरीर और प्राणों के प्रति आसक्ति का भाव खत्म हो जाता है । *
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(ii) अवमोदयं तप - - अवमौंदर्य का अर्थ है कम मात्रा में भोजन ग्रहण करना । " इसे अनोदरी तप भी कहा गया है। जितनी भूख हो उससे कम खाना ही अवमौदर्य तप है । मौदर्य तप संयम को जागृत रखने, दोषों को कम करने, संतोष और स्वाध्याय आदि की सुखपूर्वक सिद्धि करने में सहायक होता है ।"
(iii) वृत्तिपरिसंख्यान - भोजन, भाजन ( पात्र), घर, मुहल्ला इन्हें वृत्ति कहा जाता है । इस वृत्ति का परित्याग अर्थात् परिमाण, नियन्त्रण ग्रहण करना वृत्तिपरिसंख्यान तप है ।" मूलाचार के अनुसार आहारार्थं जाने से पूर्व भिक्षा से सम्बन्ध गोचर (गृह), प्रमाण, दाता, पात्र तथा अशन आदि विविध प्रकार के अभिग्रह या संकल्पपूर्वक वृत्ति करना वृत्ति परिसंख्यान तप कहलाता है ।"
१. जो मण - इदिय - विजई इह भव-पर-लोय सोक्खं णिरवेक्खो अप्पाणे विय निक्सs सञ्झाय परायणो होदि ॥ ४४० ॥ कार्तिकेयानुप्रेक्षा ।
२. मूलाचार, गाथा ३४७ ।
३. धवला १३।५।४।२६।५५|३ |
४. आहार पच्चखाणेणं जीविया संसप्पओणं वोच्छिन्दइ ।
जीविया संसप्पओगं वोच्छिन्दत्त जीवे आहार मन्तरेणं न संकिलिस्सइ ॥ २९ ॥३६॥ उत्तराध्ययनसूत्र ।
५. अवमोदरस्य भावः कर्म च अवमौदर्यमिति ॥ २१४॥ भगवती आराधना । ६. उत्तराध्ययन सूत्र, ३०।१५ ।
७. संयम प्रजागर दोषप्रशमसन्तोषस्वाध्याय दिसुखसिद्ध्यर्थमवमौदर्यम् ॥
८. भोयन- भायण - घर-वाड- दादारा वृत्तीणाम |
तिस्से बुत्तिए परिसंख्याणं गहणं बुत्तिपरिसंखाणं णाम ||
९. मूलाचार, गाथा ३५५ ।
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९।१९।। सर्वार्थसिद्धि
१३५, ४,२६ ५७/४॥ धवला |
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