Book Title: Vaishali Institute Research Bulletin 7
Author(s): Nand Kishor Prasad
Publisher: Research Institute of Prakrit Jainology & Ahimsa Mujjaffarpur
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Vaishali Institute Research Bulletin No. 2
अमोर हो जाते है। समाज में एक आर्थिक विषमता उत्पन्न हो जाती है। इससे शोषण फैलता है एवं भ्रष्टाचार को प्रश्रय मिलता है।
मनुष्य की सामान्य आवश्यकता है भोजन, वस्त्र और मकान । यदि ये वस्तुएँ सभी को सामान्य रूप से उपलब्ध हो जाय तो व्यक्ति का बहुत कुछ दुख कम हो सकता है । किन्तु परिग्रहवृत्ति वाले लोग समाज में कृत्रिम अभाव उत्पन्न कर देते हैं और इन वस्तुएँ के दाम आसमान छूने लग जाते हैं जो सामान्य जन के दुःख का कारण होते हैं। इस तरह से समाज में कुछ ही परिग्रहवृत्ति वाले लोग अधिकांश लोगों को दुःखी करने में सफल हो सकते हैं ।
परिग्रहवृत्ति का एक आयाम मुनाफाखोरी भी है। इसके वशीभूत होकर व्यक्ति अत्यधिक मुनाफा कमाने लग जाता है और उससे जनजीवन के सुख का कोई भान नहीं रहता है। इसका भी सबसे बड़ा कारण व्यक्ति की अपनी भोग-विलास की आकांक्षा की पूर्ति है । अत्यधिक इन्द्रीयजन्य आसक्ति के कारण जीवन में भोग-विलास की प्रवृत्ति बढ़ती है और व्यक्ति उस कारण से अत्यधिक मुनाफा कमा करके हर संचय की ओर अग्रसर हो जाता है ।
परिग्रहवृत्ति से मानसिक क्षमता एवं शान्ति नष्ट हो जाती है। व्यक्ति में राग-द्वेष की वृत्ति बढ़ने से इसका सामाजिक समायोजन विकृत हो जाता है और समता के अभाव में मनुष्य आत्महित की ओर अग्रसर नहीं हो सकता । जीवन में अशांति होने से मनुष्य में उच्च विचारों का ग्रहण कठिन हो जाता है । व्यसनों के मूल में भी परिग्रहवृत्ति ही उपस्थित रहती है।
यदि हम विभिन्न राष्ट्रों के आपसी सम्बन्धों की ओर ध्यान दें तो परिग्रहवृत्ति के कारण शक्ति संग्रह ही सम्बन्धों में तनाव उत्पन्न करता है । शक्ति संग्रह भी परिग्रहवृत्ति का एक उदाहरण है। विभिन्न राष्ट्र अपनी सीमा वृद्धि के लिए तथा वैचारिक मतभेद के कारण दूसरे राष्ट्रों को नीचा दिखाने का प्रयास करते हैं और अपनी शक्ति सम्वर्धन के लिए दूसरे राष्ट्रों के साथ युद्ध में उतर आते हैं। परमाणु बम, सेना, हथियार आदि सभी का संग्रह मनुष्य की परिग्रहवृत्ति से उत्पन्न कलुषित भावना का उदाहरण है। परिग्रहवृत्ति के कारण राष्ट अपने विज्ञान एवं वैज्ञानिकों का भी दुरुपयोग करता है। मानव कल्याण की भावना इनके लिये गौण होती है और अपने राष्ट्र को सर्वोपरि बनाना उनके लिए मुख्य होता है । जिस तरह से व्यक्तित्व का अहंकार दूसरे व्यक्तियों का शोषण करने में लगता है उसी प्रकार राष्ट्रों का अपना अहंकार भी दूसरे राष्ट्रों के शोषण में लग जाता है। यह शोषण राष्ट्रों के स्तर पर परिग्रहवृत्ति का ही परिणाम है।
उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट है कि मनुष्य की अधिकांश बुराई के मूल में परिग्रहवृत्ति ही उपस्थित रहती है। मानवीय विकास के लिए इस वृत्ति को नष्ट करना व्यक्तिगत एवं सामाजिक हित में है। जैन दर्शन ने इस वृत्ति की भीषणता को समझा है और उसको समाप्त करने के लिए सम्यक् चरित्र का उपदेश दिया है। यह सम्यक् चरित्र, सम्यक् दर्शन एवं सम्यक ज्ञान सहित होना चाहिये । गृहस्थ के लिए परिग्रह-परिमाण व्रत की व्याख्या की है, जिसका पालन करने से व्यक्तिगत शान्ति एवं सामाजिक विकास दोनों ही सम्भव है।
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