Book Title: Vaishali Institute Research Bulletin 7
Author(s): Nand Kishor Prasad
Publisher: Research Institute of Prakrit Jainology & Ahimsa Mujjaffarpur
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जैनेत्तर दार्शनिक परम्पराओं में द्रव्य स्वरूप विमर्श
डॉ. विश्वनाथ चौधरी द्रव्य के स्वरूप की समस्या पर संसार के समस्त चिन्तकों ने गम्भीरतापूर्वक विचार किया है। पाश्चात्य दर्शन में ग्रीक दार्शनिक भी इसी समस्या का हल खोजते हुए प्रतीत होते है। भारतीय दर्शन में द्रव्य स्वरूप की समस्या उतनी जटिल रूप से दृष्टिगत नहीं होती है जितनी कि ज्ञानमीमांसा । मेरा ऐसा कहने का तात्पर्य यह कदापि नहीं है कि भारतीय दर्शन में द्रव्यमीमांसा का कोई महत्त्व नहीं था, लेकिन यहां के चिन्तकों के सामने ज्ञानमीमांसा अत्यधिक महत्वपूर्ण थी। यदि हम ये कहें कि भारतीय दार्शनिकों के चिन्तन का विषय द्रव्य और ज्ञान मिश्रित रूप था, तो अनुचित नहीं होगा क्योंकि भारतीय दर्शन का प्रमुख लक्ष्य मोक्ष प्राप्त करना है, जिसकी प्राप्ति के लिए तत्त्व ज्ञान भी एक प्रमुख सावन माना गया है। जहाँ तक हमारा अध्ययन है, उसके आधार पर हम कह सकते हैं कि न्याय-वैशेषिक द परम्परा में द्रव्य का स्वरूप सर्वप्रथम प्रतिपादित किया गया है । न्याय-वैशेषिक
न्याय-वैशेषिक परम्परा में सात पदार्थ बतलाये गये है, उसमें द्रव्य का सर्वप्रथम उल्लेख किया गया है।' महर्षि कणाद ने अपने 'वैशेषिक सूत्र' के प्रथम-अध्याय के प्रथम आह्निक में द्रव्य के लक्षण में निम्नलिखित बातें कही हैं(१) द्रव्य क्रिया और गुण से युक्त होता है । (२) वह समवायीकरण होता है ।
द्रव्य की यह परिभाषा निर्दोष है या नहीं, इसका विवेचन नहीं करूंगा फिर भी इतना तो कह ही सकता हूँ कि उपरोक्त परिभाषा अधूरी प्रतीत होती है। द्रव्य से भिन्न द्रव्यत्व नहीं है
'द्रव्यत्व जाति से जो युक्त हो' उसे द्रव्य कहते हैं। न्यायवैशेषिकों द्वारा प्रतिपादित द्रव्य की यह परिभाषा युक्तिसंगत नहीं है । भट्टाकलंक देव ने 'तत्त्वार्थवार्तिक' में प्रखर तर्को
* व्याख्याता, प्राकृत, व० म०, म. पावापुरी, नालंदा । १. (क) द्रव्य गुण-कर्म-सामान्य-विशेष-समवाया भावाः सप्तपदार्थाः ।
-त० सं० (अन्नम भट्ट)। (ख) वै० सू० (महर्षि कणाद) अ० १, आ० १, सूत्र ४। २. “क्रियागुणवत समवायिकारणमिति द्रव्यलक्षणम्" ॥ वै० सू० (महर्षि कणाद)
अ० १, आ० १, सू० १५ ।
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