Book Title: Vaishali Institute Research Bulletin 7
Author(s): Nand Kishor Prasad
Publisher: Research Institute of Prakrit Jainology & Ahimsa Mujjaffarpur
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जनेत्तर दार्शनिक परम्पराओं में द्रव्य स्वरूप विमर्श
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द्वारा इसकी समीक्षा करते हुए सदोष बतलाया है। उनका तर्क है कि द्रव्यत्व के सम्बन्ध से द्रव्य का स्वरूप तभी माना जा सकता है जब द्रव्यत्व नामक सामान्य पदार्थ के सम्बन्ध होने के पहले द्रव्य और द्रव्यत्व दोनों अलग सिद्ध हों। कहने का तात्पर्य यह है कि न्याय वैशेषिकों की उपर्युक्त द्रव्य की परिभाषा को स्वीकार करने के लिए यह मानना जरूरी है कि द्रव्यत्व और द्रव्य इन दोनों की सत्ता अनिवार्य एवं स्वतन्त्र रूप से विद्यमान है। हम अपने इस कथन की पुष्टि उदाहरण द्वारा कर सकते हैं। जैसे कोई व्यक्ति दंडी इसलिए कहलाता है कि वह व्यक्ति और दंड स्वतन्त्र रूप से विद्यमान रहते हैं और उस व्यक्ति के सम्बन्ध से वह दण्डी कहलाने लगता है। उसी प्रकार से द्रव्य और द्रव्यत्व इन दोनों का स्वतन्त्र रूप से अस्तित्व होना अनिवार्य है और ऐसा मान लेने पर निम्नांकित कठिनाइयाँ आती हैं, जिनका निवारण होना सम्भव नहीं है।'
(क) यदि द्रव्य के सम्बन्ध होने के पूर्व द्रव्य और द्रव्यत्व इन दोनों की स्वतन्त्र सत्ता मानी जाय तो यह मान्यता ठीक नहीं जान पड़ती, क्योंकि जब द्रव्य की स्वतन्त्र सत्ता विद्यमान ही है तो द्रव्यत्व के सम्बन्ध की कल्पना करना कौन सी बुद्धिमानी है ? अर्थात् व्यर्थ है। अब यदि इस दोष के बचाव के लिए यह कल्पना की जाय कि दोनों की स्वतन्त्र सत्ता है ही नहीं, तो द्रव्यत्व के सम्बन्ध से द्रव्य कहना न्याय संगत नहीं है क्योंकि सम्बन्ध के पहले द्रव्य और द्रव्यत्व इन दोनों की सत्ता ही नहीं है, तब किसका सम्बन्ध किसके साथ होगा ?
भट्टाकलंक देव कहते हैं कि यदि इन दोनों का अस्तित्व मान भी लिया जाय तो भी द्रव्यत्व के सम्बन्ध से द्रव्यत्व की कल्पना करना सम्भव नहीं है, क्योंकि जब उनमें पृथक्-पृथक् शक्ति नहीं है तो दोनों में मिलकर भी स्वप्रत्योत्पादन की शक्ति नहीं हो सकती। अपनी इस बात का स्पष्टीकरण करने के लिए एक उदाहरण भी दिया है। जिस प्रकार ऐसे दो अन्धे व्यक्तियों को, जो जन्म से अन्धे हैं, आपस में मिला देने पर उनमें देखने की शक्ति नहीं आती, उसी प्रकार जब द्रव्य और द्रव्यत्व इन दोनों में द्रव्य प्रत्यय और व्यवहार की शक्ति नहीं है तो इन दोनों के सम्बन्ध होने पर द्रव्य कैसे कहा जा सकता है ?
यदि न्यायवैशेषिक के इस दोष को दूर करने के लिए ऐसी कल्पना करें कि द्रव्यत्व के संबंध होने के पहले भी द्रव्य 'द्रव्य' कहलाता था या उसमें द्रव्य कहलाने की शक्ति थी। तो इसके प्रत्युत्तर में भट्टाकलंकदेव का कहना है कि तब तो द्रव्य की कल्पना ही व्यर्थ है । अतः सिद्ध है कि द्रव्यत्व भी द्रव्य समवाय के पहले द्रव्य व्यवहार का कारण नहीं बन सकता है । इसके अतिरिक्त यह भी कहा जा सकता है कि द्रव्यत्व के सम्बन्ध में पहले द्रव्य का अस्तित्व होता तो द्रव्यत्व का सम्बन्ध मानना ठीक हो सकता था। लेकिन द्रव्य की स्वतः सत्ता मानी ही नहीं गयी है क्योंकि न्याय वैशेषिकों में सत्ता के समवाय से सत् सम्बन्ध से उसे 'सत्' कहा है । असत् में सत्ता समवाय माना जाय तो गदहे के सींग में भी सत्ता समवाय मानकर उसकी सत्ता माननी पड़ेगी जो किसी को भी अभीष्ट नहीं है ।
१. त० वा० (भट्टाकलंकदेव) ५।२।३ पृ० ४३६-४३७ ।
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