Book Title: Vaishali Institute Research Bulletin 7
Author(s): Nand Kishor Prasad
Publisher: Research Institute of Prakrit Jainology & Ahimsa Mujjaffarpur
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Vaishali Institute Research Bulletin No. 7
कि वहाँ एक लंबे समय तक जैन धर्म का विकास होता रहा । इस धर्म ने ब्रज क्षेत्र में समवाय की भावना के विकास में लगभग बारह शताब्दियों के दीर्घकाल में अपना योगदान दिया।
मथुरा, कौशांबी, अहिच्छत्रा, विदिशा, आदि केन्द्रों में जैन धर्म का प्रारम्भिक विकास हुआ । इन स्थलों में प्राप्त जैन अवशेषों को तीन मुख्य भागों में बाँटा जा सकता है : तीर्थकर प्रतिमाएँ, देवियों की मूर्तियां और आयागपट्ट । चौबीस तीर्थंकरों में से अधिकांश की मूर्तियां इन केन्द्रों में बनायी गयीं। तीर्थकर मूर्तियों के साथ उसके यक्ष-यक्षियों की प्रतिमायें भी बनायी गयीं। ऋषभनाथ की यक्षिणी चक्रेश्वरी तथा नेमिनाथ की यक्षिणी अंबिका की मूर्तियां उल्लेखनीय हैं । आयागपट्ट प्रायः वर्गाकार शिलापट्ट होते थे, जो पूजा में प्रयुक्त होते थे। उन पर तीर्थंकर, स्तूप, स्वस्तिक, नंद्यावर्त आदि पूजनीय चिह्न उत्कीर्ण किये जाते थे। मथरा संग्रहालय में एक सुन्दर आयागपट्र है जिसे उस पर लिखे हए लेख के अनुसार लवणशोभिका नामक एक गणिका की पुत्री वसु ने बनवाया था। इस आयागपट्ट पर एक विशाल स्तूप का अंकन है तथा वेदिकाओं सहित तोरणद्वार बना है। मथुरा कला के कई उत्कृष्ट आयागपट्ट लखनऊ संग्रहालय में हैं। रंगवल्ली का प्रारंभिक रूप इन आयागपट्टों में देखने को मिलता है । सज्जा-अलंकरण के रूप में रंगवल्ली का प्रसार भारत के अनेक क्षेत्रों में हुआ, जिसे प्राचीन वास्तुकला, मूर्तिकला और चित्रकला में देखा जा सकता है ।
जैन धर्म के अन्य प्राचीन केन्द्रों-कौशांबी, अहिच्छत्रा, देवगढ़, चंदेरी, विदिशा, ग्वालियर आदि में भी दर्शन, साहित्य और कला का विकास हुआ। विदिशा में वैदिकपौराणिक, जैन तथा बौद्ध धर्म साथ-साथ शताब्दियों तक विकसित होते रहे । विदिशा के समीप दुर्जनपुर नामक स्थान से हाल में तीन अभिलिखित तीर्थकर प्रतिमाएँ मिली हैं। उन पर लिखे हुए ब्राह्मो लेखों से ज्ञात हुआ है कि ई० चौथी शती के अंत में इस स्थल पर गुप्त वंश के शासक रामगुप्त के समय कलापूर्ण तीर्थकर प्रतिमाओं की प्रतिष्ठापना करायी गयी । कुल प्रतिमाओं की संख्या चौबीस रही होगी। विदिशा नगर के निकट एक ओर उदयगिरि की पहाड़ी में वैष्णव धर्म का केन्द्र था, दूसरी ओर पास ही साँची में बौद्ध केन्द्र था। जैन धर्म के समताभाव का मालवा क्षेत्र पर प्रभाव पड़ा। बिना किसी द्वेष के सभी मुख्य धर्म यहाँ साथसाथ संबंधित होते रहे।
जैन धर्म की अहिंसा तथा अपरिग्रह भावना का प्रभाव भारत में व्यापक रूप से हुआ। प्राचीन तथा मध्यकालीन साहित्य में हम इसे देख सकते हैं। कला के क्षेत्र में समन्वयात्मक भावना के मूर्त रूप को हम देश के अनेक कला केन्द्रों में पाते हैं । समन्वय के संवर्धन में जैन मुनियों, आचार्यों, व्यापारियों तथा जनसाधारण ने अपने प्रयास जारी रखे। इस प्रकार के उदाहरण कौशांबी, देवगढ़ (जिला ललितपुर, उत्तर प्रदेश), खजुराहो, मल्हार (जिला बिलासपुर, म० प्र०), एलोरा आदि में उपलब्ध हैं। दक्षिण भारत में वनवासी, कांची, मूडविद्री, धर्मस्थल, काडक्ल आदि ऐसे बहुसंख्यक स्थानों में विभिन्न धर्मों के जो स्मारक विद्यमान है उनसे इस बात का पता चलता है कि समवाय तथा सहिष्णुता को हमारी विकासशील संस्कृति में प्रमुखता दी गयी।
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