Book Title: Vaishali Institute Research Bulletin 7
Author(s): Nand Kishor Prasad
Publisher: Research Institute of Prakrit Jainology & Ahimsa Mujjaffarpur
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Vaishali Institute Research Bulletin No. 7
वीर और दृढ़चित्त है। इसका मूलमन्त्र मानो स्वावलम्बन है। यही कारण है कि यहाँ मुक्त आत्मा को "जिन" या "वीर" कहा जाता है। जैनियों को कर्मवाद जैसी अलंध्य व्यवस्था में विश्वास है। पूर्व जन्म के कर्मों का नाश विचार, वचन और कर्मों के द्वारा ही हो सकता है। कैवल्य की प्राप्ति अपने ही कर्मों के द्वारा हो सकती हैं। तीर्थकर तो मार्ग प्रदर्शन के लिए केवल आदर्श का काम करते हैं। इस तरह यथार्थ स्वरूप को पहचानने से ही मोक्ष का मार्ग प्रशस्त होता है, तीथंकरों की भक्ति से नहीं।' हम देखते हैं कि जैनधर्म में साध्य की प्राप्ति में भी ईश्वर की आवश्यकता नहीं पड़ती। मनुष्य को किसी का कृपाकांक्षी न बनकर स्वयं ही साधना से परमात्मपद की प्राप्ति करनी चाहिय ।
II
सैद्धान्तिक रूप में जैनधर्म अनीश्वरवादी है किन्तु व्यवहारिक रूप से इसे ईश्वरवादी कहना अधिक उपयुक्त जान पड़ता है। यह एक ऐसी सत्ता या शक्ति में विश्वास रखता है जो सर्वज्ञ, सर्व शक्तिशाली और सर्वव्यापी है। यहां सिद्धजीव अर्थात तीर्थकर ईश्वर का रूप ले लेते हैं। "जहाँ तक परमात्मा के प्रति श्रद्धा या आस्था का प्रश्न है, जैनधर्म में इसे बीतराग देव (तीर्थकर) के प्रति श्रद्धा के रूप में अभिव्यक्त किया गया है। यद्यपि जैनधर्म को अनीश्वरवादी कहा जाता है और इसी आधार पर कभी-कभी यह भी मान लिया जाता है कि उसमें श्रद्धा या भक्ति का कोई स्थान नहीं है किन्तु यह एक भ्रान्त धारणा ही है।"3 ये तीर्थकर मुक्त जीव है । इनमें अनन्तज्ञान, अनन्तदर्शन, अनन्तशक्ति एवं अनन्त सुख विद्यमान है। इन्होंने रागद्वेष, जन्म-मरण एवं अन्य सांसारिक वासनाओं पर पूर्ण नियन्त्रण कर लिया हैं। सभी विकारों पर विजय प्राप्त करने के कारण इन्हें जिन कहा जाता है। जिन लोग स्वभाव सिद्ध, जन्म सिद्ध, शुद्ध, बुद्ध भगवान् नहीं होते वरन साधारण प्राणियों के समान ही जन्म ग्रहण कर काम क्रोधादि विकारों पर विजय प्राप्त करके परमात्मा बन जाते हैं अर्थात् ईश्वरत्व को प्राप्त होते हैं। ऐसे वीतराग सर्वज्ञ, हितोपदेशी ही जिन है तथा उनके द्वारा किया गया उपदेश ही जैनधर्म है।' इन जिन अथवा तीर्थंकरों की पूजा जैनधर्म में होती है । इनकी मूतियां जैनी के लिए श्रद्धा एवं आराधना के विषय है। जैनधर्म में विभिन्न तीर्थंकरों के गर्भ प्रवेश, जन्म, दीक्षा, कैवल्य प्राप्ति एवं निर्वाण दिवसों को पर्व के रूप में मनाया जाता है।" इन दिनों में सामान्यतया व्रत रखा जाता है और जिन प्रतिमाओं की विशेष समारोह के साथ पूजा की जाती है। दीपावली का पर्व भी भगवान् महावीर के निर्वाण दिवस के
१. भारतीय दर्शन-दत्ता और चटर्जी पे०७४ । २. द्रष्टध्य-पञ्चास्तिकाय समयसार १७६ और आगे। ३. धर्म का मर्म, पे० २९ । ४. द्रष्टव्य-भद्रबाहु का कल्पसूत्र और श्रीमति स्टीवेन्सन का दी हट आफ जैनिज्म
चतुर्थ अध्याय । ५. जैनधर्म-पं० कैलाशचन्द्र शास्त्री, पृ० ६५ । ६.जैन आध्यात्मवाद : आधुनिक सन्दर्भ में, पृ० १३ ।
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