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पहुँच गये। श्री लल्लजी, श्रीमद्जीके निवासस्थानका पता लगाने डॉ. प्राणजीवनके अस्पतालकी ओर गये। श्रीमद्जीने दूरसे ही मुनिश्रीको देखकर अपनी सेवामें रहनेवाले भाई ठाकरशीको कहा कि उन्हें वनमें ले जाओ। पीछे स्वयं भी वहाँ गये। एक आम्रवृक्षके नीचे मुनिश्रीको बुलाकर पूछा और जान लिया कि तीन मुनि पहले आ पहुँचे हैं और चार पीछे आ रहे हैं। यह जानकर श्रीमद् सहज झुंझलाकर बोले, “आप लोग क्यों हमारे पीछे पड़े हैं? अब क्या है? आपको जो समझना था वह सब बता दिया है। अब आप लोग कल यहाँसे विहार कर चले जाइये। देवकरणजीको हम समाचार भिजवा देते हैं जिससे वे यहाँ न आकर अन्य स्थानपर विहार कर वापस चले जायेंगे। हम यहाँ गुप्तरूपसे रहते हैं, किसीके परिचयमें हम आना नहीं चाहते, अप्रसिद्ध रहते हैं। डॉक्टरकी ओर आहार लेने न आयें, अन्य स्थानसे लेवें। कल यहाँसे विहार कर जायें।"
श्री लल्लजीने विनती की, “आपकी आज्ञानुसार चले जायेंगे, परंतु मोहनलालजी और नरसिंहरखको यहाँ आपके दर्शन नहीं हुए हैं, अतः आप आज्ञा दें तो एक दिन रुककर फिर विहार करेंगे।"
श्रीमद् बोले, “ठीक है, ऐसा करें।" ।
दूसरे दिन उसी आम्रवृक्षके नीचे दोनों मुनि गये। श्रीमद्जी भी वहाँ पधारे। उस समय 'द्रव्यसंग्रह' की निम्न गाथाएँ वे उच्च स्वरसे बोलते हुए आ रहे थे। नीचे बैठनेके बाद भी बहुत देर तक उसीका उच्चारण होता रहा
*"मा मुज्झह मा रज्झह मा दुस्सह इट्ठणि?अत्थेसु । थिरमिच्छह जइ चित्तं विचित्तज्झाणप्पसिद्धीए॥ जं किंचिवि चिंतंतो णिरीहवित्ती हवे जदा साहू । लभ्णय एयत्तं तदाहु तं तस्स णिच्चयं ज्झाणं ॥ मा चिट्ठह मा जंपह मा चिंतह किंवि जेण होई थिरो ।
अप्पा अप्पम्मि रओ इणमेव परं हवे ज्झाणं ॥" लगभग आधे घण्टे तक उपरोक्त गाथाकी धुन चलती रही फिर स्वयं समाधिस्थ हो गये। सर्वत्र शांति प्रसर गयी। एक घण्टे बाद, "विचारियेगा" इतना कहकर वहाँसे चले गये। कदाचित् लघुशंकादिके लिये गये होंगे, यह सोचकर मुनि थोड़ी देर रुके, किन्तु वे लौटे नहीं। अतः मुनि वापस उपाश्रयमें आ गये। आहार-पानी लाकर, आहारसे निवृत्त होकर बैठे थे, उस समय भाई ठाकरशी उपाश्रयमें आये। उनसे श्री लल्लजी स्वामीने पूछा, “देवकरणजीको पत्र लिखनेके संबंधमें क्या हुआ?" ठाकरशीने कहा, “पत्र तो लिख दिया है पर अभी भेजा नहीं है।"
उसी दिन शामको श्री देवकरणजी आदि ईडर आ पहुँचे । श्रीमद्ने सातों मुनियोंको पर्वतपरके श्वेताम्बर और दिगम्बर दोनों मंदिर खुलवाकर दर्शन करवानेके लिये ठाकरशीको भेजा। इन सातों
* अर्थ-विचित्त अनेक प्रकारके निर्विकल्प ध्यानकी सिद्धिकी इच्छा हो तो इष्ट-अनिष्ट पदार्थों में राग-द्वेषमोह न करो। (४८) किसी भी प्रकारका चिंतन करते हुए जब मुनि एकाग्रता प्राप्त कर निस्पृहवृत्तिवाला होता है सब उसे निश्चय ध्यानकी प्राप्ति कही जाती है। (५५) किसी भी प्रकारकी (शारीरिक) चेष्टा न करो, किसी भी प्रकारके (वचनका) उच्चारण न करो, किसी भी प्रकारका (मनसे) विचार न करो, तब तुम स्थिर बनोगे । यों आत्मा आत्मामें रमण करे वह परम ध्यानका प्रकार है। (५६)
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