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भावार्थ : जो बुद्धि जिनेन्द्र भगवान के वचनों को अवधारित कर लेती है उससे उस आत्मा की विशुद्धि होती है। जिनेन्द्र भगवान के वचन ही प्रकृष्ट होने से प्रवचन हैं। उन प्रवचनों को अन्य भव्य जीवों को दिखाना अर्थात् समझाना, सुनाना सम्यक्त्व की विशुद्धि में कारण है। इन वचनों से भव्यात्मा को आत्म प्रकाश मिले, इस तरह युक्तियों से समझाना सम्यक्त्व को दृढ बनाता है। युक्ति से आगम को सरल बनाकर हृदयग्राही बनाना भी जिन प्रवचन का प्रकाशन है। युक्ति वही हो जिससे आगम पुष्ट होता हो। अपनी मनचाही युक्तियों से आगम को प्रस्तुत करना आगम
और सम्यक्त्व की विराधना है। जो सरल उदाहरणों से नये ढंग से आगम को समझाकर भव्य जीवों को सन्तुष्ट करता है वह सुधी अपने सम्यक्त्व की विशुद्धि बढ़ाता है। इसके साथ ही जो सिद्धांत श्रुत उपलब्ध है उसको कर्म निर्जरा हेतु, आत्म विशुद्धि हेतु अध्ययन करना सम्यक्त्व की वृद्धि करता है। भक्ति और शुद्धि के साथ सिद्धांत ग्रन्थों का पठन, पाठन असंख्यात गुणी कर्म निर्जरा को कराता है। षटखण्डागम, कसायपाहुड़ और इनकी धवला, जयधवला टीका, महाबन्ध आदि ग्रन्थ अत्यधिक श्रद्धा, भक्ति, शान्त भाव से जो मुनिजन पढ़ते हैं उनके परिणामों की विशुद्धि, अप्रमत्तता, सम्यक्चारित्र और सम्यग्ज्ञान की वृद्धि होती है। सिद्धांत के रहस्यों को समझे बिना कर्म सिद्धान्त, कैवल्य प्राप्ति और सिद्धत्व की पर्याय पर श्रद्धान नहीं होता है। सर्वज्ञत्व की विशालता और श्रृत की महिमा का आकलन इन्हीं ग्रन्थों के सम्यक् पठन, पाठन से होता है।
तच्चत्थभावी रुइणेव तत्थ णिस्संकिदादीहि गुणेसु सत्तो। मोत्तूण दोसंपसमादिचिण्हंसम्मत्तसुद्धत्थ करेदि भव्वो॥९॥
तत्त्व भावना में रुचि रखता निःशंकादि गुणों में लीन सम्यग्दर्शन के दोषों को तजने में जो बहुत प्रवीण। शम, संवेग, दया अरु श्रद्धा निकट भव्य के चिह्न रहे सम दर्शन की शुद्धि हेतु गुण-दोषों का ज्ञान रहे॥९॥
अन्वयार्थ : [तच्चत्थभावी ] तत्त्वार्थ की भावना करने वाला [ तत्थ ] उसी तत्त्वार्थ में [रुइणेव ] रुचि से ही [णिस्संकिदादीहि ] नि:शंकित आदि गुणों के द्वारा [ गुणेसु] गुणों में [ सत्तो ] आसक्त होता है। [ दोसं ] दोषों को [ मोत्तूण ] छोड़कर [ भव्वो ] वह भव्य [ सम्मत्तसुद्धत्थ ] सम्यक्त्व की शुद्धि के लिए [ पसमादि-चिण्हं ] प्रशम आदि चिह्नों को [ करेदि] करता है।
भावार्थ : तत्त्वार्थ को जानना बहुत आवश्यक है। जानकर उसका श्रद्धान करना उससे भी ज्यादा आवश्यक है। ज्ञान हुए बिना श्रद्धान नहीं होता है। ज्ञात हुए उन तत्त्वों की भावना करने से तत्त्व श्रद्धान मजबूत होता है। भव्य आत्म रुचि के साथ तत्त्वार्थ की भावना करता है। बन्ध, संवर, निर्जरा आदि तत्त्वों की भावना से बन्ध के प्रति हेय भाव
और संवर, निर्जरा तत्त्व के प्रति आदर भाव उत्पन्न होते हैं। निरन्तर निःशंकित, नि:कांक्षित आदि गुणों की भावना से इन गुणों में वृद्धि होती है। अपनी आत्मा के सम्यग्दर्शन को संभालने के लिए नि:शंकित, नि:कांक्षित, निर्विचिकित्सा और अमूढदृष्टि ये चार गुण हैं। दूसरे की आत्मा के सम्यग्दर्शन की रक्षा करने के लिए उपगूहन, स्थितिकरण, वात्सल्य और प्रभावना अंग हैं। इस तरह सम्यग्दृष्टि जीव स्व, पर हितकारी जीवन जीता है।