Book Title: Titthayara Bhavna
Author(s): Pranamyasagar
Publisher: Unknown

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Page 171
________________ श्रावक के लिए स्वाध्याय अति आवश्यक क्रिया नहीं है किन्तु पूजन अति आवश्यक सर्वप्रथम करने योग्य क्रिया है। कुछ लोग यह भी तर्क देते हैं कि स्वाध्याय परम तप है। तप से संवर, निर्जरा होती है। इसलिए संवर, निर्जरा करने के लिए तप करना चाहिए। सो यह तर्क भी अज्ञानता से भरा है। आचार्यों ने 'तपसा निर्जरा च' यह सूत्र किसके लिए लिखा है? जो व्रत, समिति, गुप्ति से परिपूर्ण है, उसी महाव्रती के लिए तप निर्जरा का कारण है। बारह प्रकार के तप में स्वाध्याय भी एक तप है परन्तु यह तप उनके लिए है जो संवर, निर्जरा की योग्यता रखते हैं। संवर-निर्जरा की योग्यता उनके पास होती है जो हिंसा आदि पाँच पापों से सर्वथा सदा काल विरक्त होते हैं। संवर सहित करो तप प्रानी मिले मुकति रानी।' निर्जरा भावना में तप करना उनके लिए है जो संवर सहित हैं। संवर पाप आस्रव के रुकने से होता है। जिनके पाप का त्याग नहीं है वह संवर निर्जरा के पात्र नहीं है। इसीलिए आचार्यों ने कहा है कि संवर पूर्वक निर्जरा ही मोक्ष के लिए कारणभूत है। आस्रव पूर्वक होने वाली निर्जरा से कोई फल नहीं है। भगवती आराधना, मूलाचार जैसे ग्रन्थों में स्पष्ट कहा है कि सम्मादिट्ठिस्स वि अविरदस्स ण तवो महागुणो होदि। होदि हु हत्थिण्हाणं चुंदुच्छिदकम्म तं तस्स ॥ मूला. १०/५२ अविरत सम्यग्दृष्टि का तप भी महागुणकारी नहीं है। उसके निर्जरा से ज्यादा बंध है। अविरत सम्यग्दृष्टि की निर्जरा हाथी के स्नान की तरह है। जैसे हाथी तालाब में स्नान करके निकलता है तो पुनः तट की धूलि अपने सिर पर डाल लेता है, उसी प्रकार अविरत सम्यग्दृष्टि जितनी निर्जरा करता है उससे ज्यादा कर्म बंध की धूलि आत्मा में बाँध लेता इसलिए स्वाध्याय को परम तप कहकर और पूजन में आस्रव-बन्ध दिखाकर श्रावक अपने आपको समीचीन मार्ग से वंचित कर रहा है। किसी भी ग्रन्थ की कोई भी पंक्ति उठाकर प्रमाण दिखलाकर अनपढ़ लोगों को भुलावे में डालने का यह कार्य हितकारी नहीं है। अरे पाठक! पुनः सावधान कर रहा हूँ कि हमारे इस कथन से छल ग्रहण मत कर लेना। यह नहीं सोचना कि श्रावक के लिए स्वाध्याय नहीं करना चाहिए। स्वाध्याय करना, खूब करना लेकिन पूजन करने के बाद करना। पूजन में दोष दिखाकर स्वाध्याय की निर्दोषता बताना उचित नहीं। श्रावक का भी स्वाध्याय आवश्यक है किन्तु पूजन के बाद। स्वाध्याय प्रथम आवश्यक नहीं है किन्तु तीसरा आवश्यक है। स्वाध्याय तो मुनि महाराज के लिए भी आवश्यक नहीं है । षट् आवश्यक क्रियाओं में स्वाध्याय नहीं है। अट्ठाईस मूलगुणों में भी स्वाध्याय नहीं है। यह स्वाध्याय तो मुनिराज का एक तप का अंग है। स्वाध्याय विषय-कषायों के बचने के लिए, इन्द्रिय और चित्त की एकाग्रता करने के लिए किया जाता है। यदि यह एकाग्रता भगवत्पद की भक्ति से भी आती हो तो भी स्वाध्याय किए बिना मुनिराज अपनी आत्मा को पाप-पंक से बचाकर जीवन पर्यन्त संयम का निर्वाह कर सकते हैं। भव्यात्मन् ! नि:संकोच खूब पुण्य का बंध करो। खूब पुण्य की क्रिया करो किन्तु इतना ध्यान रखना कि

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