Book Title: Titthayara Bhavna
Author(s): Pranamyasagar
Publisher: Unknown

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Page 198
________________ इसलिए भव्यात्मन् ! पुण्य और धर्म में अन्तर कथंचित् उनके लिए कहा है जो आत्म परिणामों की ओर ध्यान न देकर मात्र पुण्य बंध के लोभ में पूजा आदि करते हैं। यदि तुम सांसारिक इच्छा पूर्ति के बिना पूजा आदि शुभोपयोग में प्रवृत्ति कर रहे हो तो तुम्हारा पुण्य ही धर्म है। धर्म पुरुषार्थ से ही मोक्ष पुरुषार्थ है। तुम पूजा, व्रत आदि क्रियाएँ खूब करो और उद्देश्य कर्म क्षय का रखो। उद्देश्य आत्म विशुद्धि बढ़ाने का रखो। इसी उद्देश्य से प्रत्येक पुण्य क्रिया धर्म हो जाएगी। थोड़ा और समझो- काम पुरुषार्थ भी श्रावक के लिए होता है। जानते हो यह पुरुषार्थ नाम तब पाता है जब धर्म के साथ हो। अब काम-भोग की क्रिया में धर्म कहाँ है? पुत्र की उत्पत्ति के अभिप्राय से यह क्रिया धर्म है और ॥ की पूर्ति के साथ यह क्रिया पाप है, अधर्म है। विचार करो! क्रिया एक ही है किन्तु अभिप्राय विशेष के कारण वह धर्म और अधर्म दोनों रूप है। जब पुत्र की उत्पत्ति हुई तो मानो कि धर्म की प्राप्ति हुई। अब यदि कोई कहे कि पुत्र की उत्पत्ति सो तो धर्म है और भोग क्रिया सो तो अधर्म है। इसलिए भोग क्रिया छोड़ो, वह हेय है, पुत्र की ओर देखो, वह उपादेय है। क्या उसे बिना भोग, संयोग के पुत्र की प्राप्ति हो सकेगी? नहीं। सम्यग्दृष्टि श्रावक भी इस क्रिया को पुत्र उद्देश्य की उपादेय बुद्धि से करता है, हेय बुद्धि से नहीं। हेय बुद्धि से यदि क्रिया करने का विधान किया जाएगा तो संसारी जीव वासना को बढ़ाता जाएगा और कहेगा हम तो हेय बुद्धि से संभोग कर रहे हैं। ऐसा अनर्थ मत कर बैठना। भव्यात्मन् ! ख्याति-पूजा-लाभ के बिना स्वाध्याय, वन्दना, ध्यान आदि क्रिया को करके रत्नत्रय की वृद्धि करना भी प्रवचन वात्सल्य भावना है। गुणी जनों से अनुराग तीर्थंकर प्रकृति के बन्ध का कारण है। आगे कहते हैं दसविहधम्मे णिच्चं सागारणगारचरियजुत्तेसु। विणओ हि जहाजोग्गं पवयणवच्छलत्त तस्सेव॥२॥ दश प्रकार के धर्म भाव में विनय भाव से रमता है सद्वृष्टि श्रावक साधु की योग्य विनय भी करता है। विनय भाव वात्सल्य भाव है जो साधक यह जान रहा प्रवचन वत्सल धारक साधक तीर्थंकर पथ मान रहा॥२॥ अन्वयार्थ : [ दसविहधम्मे णिच्चं ] नित्य ही दश प्रकार के धर्म में और [ सागारणगारचरियजुत्तेसु] सागार, अनगार चर्या में युक्त जीवों में [ जहाजोग्गं] यथायोग्य [विणओ] विनय [ हि ] निश्चित ही [ तस्स ] उस जीव की [पवयणवच्छलत्त एव] प्रवचन वत्सलत्व भावना ही है। भावार्थः हे आत्मन् ! जो अपनी आत्मा में दश प्रकार के धर्म को बढ़ाता है, उन धर्मों में अनुराग रखता है वह अपने आत्मा से वात्सल्य रखता है। सागार चर्या से युक्त गहस्थ श्रावक और अनगार चर्या से युक्त श्रमण संघ में यथायोग्य

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