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मोक्षार्थिन् ! तुम तो व्यवहार और निश्चय दोनों मार्ग पर वात्सल्य अपनाकर प्रवचनवात्सल्य भावना को भाओ। यथावसर दोनों पहलू का आश्रय लो और तीर्थंकर प्रकृति सदृश पुण्य कर्म का निराबाध बन्ध करो।
आचार्य कुन्दकुन्द देव ने समयसार में श्रमण को इन पुण्य-पाप क्रियाओं से दूर होने की प्रेरणा दी है, न कि पुण्य, पाप के कर्म बन्ध से। यह बात अलग है कि क्रिया छूटने पर कर्म बन्ध भी छूट जाता है परन्तु पुरुषार्थ क्रिया से दूर रहने का होता है, कर्म से दूर रहने का नहीं। पुण्य-पाप को एक समान मानकर शद्धात्म ध्यान में लीन होने की पात्रता श्रमण की है। उसी श्रमण के लिए कहा गया है कि अब तू पुण्य क्रिया की इच्छा भी मत कर।
अप्पाणमप्पणा सँधिदूणदो पुण्णपावजोगेसु। दसणणाणम्हि ट्ठिदो इच्छाविरदो य अण्णझि॥१९४॥
अर्थात्- श्रमण पुण्य और पाप के कारणभूत दोनों प्रकार की शुभाशुभ क्रियाओं में अपनी आत्मा को अपने संवेदन ज्ञान के बल से दूर हटाकर दर्शन और ज्ञान में स्थित होता हुआ अन्य द्रव्यों में इच्छा रहित होता है।
शुद्धोपयोग की इस स्थिति में भी ज्ञानावरण आदि पाप कर्म का और साता वेदनीय आदि पुण्य कर्म का बन्ध तो होता ही रहता है। पाप-पुण्य का यह बन्ध दशवें गुणस्थान तक अनवरत चलता है। ऐसी स्थिति में एक श्रावक यदि पुण्य कर्म के बन्ध से अपने आपको रहित करने की बात कहे तो वह हास्य का पात्र ही है।
प्रवचन वात्सल्य रखने वाले का मन सुन्दर होता है
चित्तस्स य कालुस्सं धोयदि पवयणवच्छलत्तजलेण। जो समणो सुमणो सो पवयणवच्छलत्त तस्सेव॥४॥
सहधर्मी स्नेह सलिल से चित्त कलुषता को धोता। अन्तरमन से कोमल इतना सुमन श्रमण का मन होता। जिसके मन में प्रेमभाव है, क्षमाभाव है, सुन्दर है सहधर्मी वात्सल्य भाव ही प्रवचन का नित आदर है॥४॥
अन्वयार्थ : [पवयण-वच्छलत्तजलेण] प्रवचन वत्सलत्व के जल से [ जो] जो [चित्तस्स] चित्त की [कालुस्सं] कलुषता को [ धोयदि] धोता है [ सो समणो ] वह श्रमण [ सुमणो] श्रेष्ठ मन वाला है [ तस्स एव] उसका ही [पवयणवच्छलत्त] प्रवचन वत्सलत्व है।
भावार्थ : आत्मन् ! जिसका मन साधर्मी के प्रति सद्भाव से भरा रहता है, उसके चित्त में कलुषता उत्पन्न नहीं होती है। सहधर्मी को देखकर सदैव हर्षित और प्रफुल्लित होने वाला हृदय ही धर्म को जानता है। मन सहित(अर्थात् समन) तो हर कोई होता है किन्तु फूल की तरह मन वाला(सुमन) कोई-कोई ही होता है। श्रमण का मन सदैव कुसुम की