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तरह प्रफुल्लित रहता है तभी वह प्रवचन वात्सल्य की भावना निरन्तर भाता है। सहज उत्पन्न हुए मात्सर्य और कालुष्य जनित परिणामों को प्रवचन वत्सलत्व के जल से धोकर अपनी आत्मा को निर्मल बनाए रखना कलिकाल के दोष को जीतना है। विधर्मी से संवाद और सहधर्मी से विसंवाद होना कलिकाल की विडम्बना है। इसीलिए आचार्य उमास्वामी महाराज ने तत्त्वार्थ सूत्र में अचौर्य महाव्रत की भावना में सधर्मी अविसंवाद की भावना रखी है।
भव्यप्राणिन् ! आचार्य कुन्दकुन्द देव कहते हैं कि समओ सव्वत्थ सुंदरो लोए।' अर्थात्- शुद्धात्मा परिणत आत्मा ही लोक में सर्वत्र सुन्दर है। ऐसी सुन्दर आत्मा का ध्यान सुन्दर मन वाला ही करता है। कलुषित चित्त तो विक्षिप्त चित्त है। ऐसा चित्त आत्मध्यान में कभी भी एकाग्र नहीं होता है।
हे श्रमण ! सधर्मी की उन्नति से मन मैला नहीं करना। आत्मचिन्तन करना कि- हमारा स्वभाव समतामय है। मलिनता कर्मादय से उत्पन्न हुआ विभाव परिणाम है। कर्म के उदय से सभी जीव अपनी-अपनी उपलब्धियाँ हासिल करते हैं। कोई भी उपलब्धि शाश्वत नहीं है। यह दुनिया तो बैण्ड बाजे बजाने वाले की तरह है, जिसकी बारात में गए उसी के सामने बाजे बजाने लगते हैं। यह दुनिया किसी की न कभी हुई और न होगी। बड़े-बड़े चक्रवर्ती और तीर्थंकर जैसों का नाम यह दुनिया याद नहीं करती तो तू कितना सा नाम-पहचान अर्जित कर पाएगा। अपनी सोच को व्यापक बनाकर तू संकीर्ण विचारों की गलियों से बाहर निकल। संकीर्ण विचारों की घटन निश्चय से आत्महत्या है। तू अहिंसक है- इसलिए 'जिओ और जीने दो' का मन्त्र जाप कर। तेरे मन की मलिनता अवश्य दूर होगी।
आचार्य पूज्यपाद देव कहते हैं कि- आत्मन् ! अपमान-सम्मान उस चित्त के पास होते हैं, जिसका चित्त विक्षिप्त होता है। विक्षिप्त चित्त में साम्य भाव नहीं रहता है। जिसके मन में साम्य भाव नहीं, वह तत्त्व से बहिर्भूत है। 'अविक्षिप्तं मनस्तत्त्वम' आचार्य कहते हैं. अविक्षिप्त मन ही तत्त्व है। अपने आत्मतत्त्व को महत्त्व दो। जिसको अपना महत्त्व ज्ञात है उसे दुनिया में कोई भी विस्मयकारी या महत्त्वपूर्ण नहीं दिखता है। अपने आत्म स्वभाव को विभाव में बदलकर, अपनी आत्मा को कर्म से लिप्त करके और अपने स्वसमय की हानि करके तू रत्नत्रय को मलिन कर रहा है। 'परचिन्ताधमाधमा' अर्थात् पर की चिन्ता आत्मा को अधम से भी अधम बना देती है। हे रत्नत्रयपूतात्मन् ! तू ही तत्त्व है, तू ही परमात्मा है, तू ही सर्वशक्तिमान् है, ऐसा अनुभव में ला।
प्रवचन वात्सल्य की भावना कैसे विचारक के मन में होती है, यह कहते हैं
को वि ण परो णिओ णो सचित्ताचित्तदव्वमज्झत्थो। सव्वाण सोक्खकंखी पवयणवच्छलत्त तस्सेव॥५॥
कोई भी ना अपना जग में कोई नहीं पराया है सभी अचेतन चेतन पन में समता भाव सुहाया है। जो सब का सुख चाह रहा है राग, द्वेष से दूर रहे उसके मन में सहधर्मी से वत्सलता का पूर बहे॥५॥