Book Title: Titthayara Bhavna
Author(s): Pranamyasagar
Publisher: Unknown

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Page 204
________________ एक्केण विणा णाण्णं तम्हा दोण्णं वि समासेज॥६॥ विनय और वात्सल्य भाव दो, गुण हैं पर सापेक्षित हैं जहाँ एक है वहीं दूसरा नयन मार्ग सम ऐच्छिक हैं। दोनों में से एक भाव भी जिसमें उसमें दूजा भी प्रवचन वत्सलता में रहते प्रेमभाव गुण पूजा भी॥६॥ अन्वयार्थ : [विणओ ] विनय [य] और [ वच्छलत्तं] वात्सल्य [ परोप्परं ] परस्पर में [वत्थुदो ] वस्तुतः [दु] तो [ एयटुं] एकार्थवाची हैं [ एक्केण ] एक के [विणा] बिना [णाण्णं] दूसरा नहीं है [ तम्हा ] इसलिए [दोण्णं ] दोनों का [वि] ही [ समासेज ] आश्रय लेना चाहिए। भावार्थ : भव्यात्मन् ! विनय और वात्सल्य वस्तुतः एकार्थवाची हैं। व्यवहार में इन्हें भिन्न-भिन्न देखा जाता है। विनय में लघुता का व्यवहार होता है पर उसमें वात्सल्य भाव छिपा रहता है। बिना वात्सल्य के विनय चापलूसी होती है। इसी तरह जहाँ वात्सल्य है वहाँ विनय भी है। वात्सल्य में भी घुलना-मिलना होता है, जो बिना झुके नहीं होता है। भावात्मक स्तर पर दोनों एक ही हैं किन्तु क्रियात्मक स्तर पर थोड़ा सा भेद दिखता है। बड़ों के अन्दर छोटों के लिए वात्सल्य होना भी एक तरह से उनकी विनय करना है। जैसे मुख्य-गौण भाव से वस्तु के भीतर अनेक धर्म रहते हैं, वैसे ही आत्मा के ये दोनों धर्म रहते हैं। एक के बिना दूसरे का अभाव है, इसलिए किसी एक का सहारा लेने से दूसरा गुण भी विकसित होने लगता है। अपनी भावना का प्रभाव दीर्घायामी इन्हीं गुणों के विकास से होता है। हनुमान के मन में राम-सीता के लिए विनय और वात्सल्य दोनों ही गुण उच्चतम स्तर पर थे, तभी तो सुग्रीव आदि अनेक सेवकों की अपेक्षा हनुमान् का प्रभाव आज तक अबाधित है। भगवान् महावीर के भीतर विश्व कल्याण की अपूर्व भावना का प्रभाव आज तक उन्हें पूज्य और सर्वोपरि बनाये हुए है। जगत् के प्राणिमात्र पर जैसा वात्सल्य भाव तीर्थंकर प्रभु के भीतर होता है वैसा अन्य किसी के पास नहीं होता है। प्रवचन वत्सलत्व से रहित कौन होता है? यह कहते हैं जो हीलदि सहधम्मिं सो हीलदि धम्ममप्पणो साहू। मच्छरिओ मोक्खरिऊ पवयणवच्छलत्तेण चुदो॥७॥ तिरस्कार सहधर्मी का जो करता है, वह मानी है ऐसा कर निज धर्म घट रहा ना जाने अज्ञानी है। ईर्ष्या दाह कलुषता रखकर शिव मारग का शत्रु बना क्लेश भावसे शिवपथ चलना गिर-गिर पंगुगिरिचढ़ना॥७॥

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