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विनय रखना प्रवचन वात्सल्य भावना है। दश धर्म में रुचि रखना ही धर्म की विनय है। धर्म की और धर्मी की विनय वात्सल्य भावना है।
हे श्रमण! यदि गृहस्थ को यथायोग्य आर्शीवाद देकर उस गृहस्थ की विनय स्वीकार कर लेते हो तो यही उस गृहस्थ की श्रमण द्वारा विनय है। और जब 'धर्मवृद्धि' का आशीष दोगे तो तुम्हारी आत्मा में भी धर्मानुराग बढ़ेगा। इसी तरह यथायोग्य क्षुल्लक, आर्यिका, मुनि के विषय में जानना।
अपने से गुणों में बड़े साधुजन के लिए मात्सर्य भाव से रहित हो विनय में प्रवृत्त होना भी प्रवचन वात्सल्य
प्रवचन वात्सल्य और क्या है?
भूदेसु साणुकं पो णोकम्मकम्मरायदो मुक्को। सुद्धप्पपेक्खमाणो पवयणवच्छलत्त तस्सेव॥३॥
सब जीवों में करुण हृदय है, दया भाव से सिंचित है तन नो-कर्म राग से हटकर कर्म राग से वंचित है। शुद्धातम की छटा निरखता प्रवचन वत्सल धारक है तीर्थंकर पद पाने हेतु भाव यही शुभ कारक है॥३॥
अन्वयार्थ : [भूदेसु] जीवों में जो [ साणुकंपो] अनुकंपा सहित है [ णोकम्म-कम्मरायदो मुक्को ] और जो नोकर्म तथा कर्म के राग से मुक्त है [ सुद्धप्प-पेक्खमाणो] शुद्धात्मा को देखने वाला है [ तस्स एव ] उसको ही [पवयणवच्छलत्त ] प्रवचन वात्सल्य भावना है।
भावार्थ : जो सभी प्राणियों में अनुकम्पा भाव रखता है, वह सभी प्राणियों के प्रति वात्सल्य भाव रखता है। जीवदया से वासित हृदय सभी जीवों की रक्षा करता है। समस्त आत्माओं को व्यवहार नय से देखकर, जानकर भी निश्चय से उनकी दया भावना से रक्षा करता है। जब वही आत्मा अपने आत्म तत्त्व को देखता है तो निश्चय से अपनी आत्मा पर वात्सल्य भाव रखता है। कर्म और नोकर्म से रहित शुद्धात्मा का श्रद्धान, ज्ञान और आचरण करना निश्चय नय से प्रवचन वात्सल्य है।
जब यह आत्मा शुद्धात्म तत्त्व की रुचि रखता है तब अपनी आत्मा को पुण्य, पाप कर्म से रहित देखता है।
भाव में स्थिर रहने वाले आत्मा के लिए ही पण्य और पाप एक समान होता है। लोहे की बेडी और सोने की बेड़ी दोनों का बन्धन छोड़ने वाला शुद्धोपयोगी श्रमण होता है। उसी के लिए दोनों कर्म समान है। जब तक पुण्यपाप की क्रिया चल रही है तब तक आत्मानुभव नहीं होता है। श्रमण पाप की क्रियाओं से तो जीवन पर्यन्त तक दूर रहता ही है किन्तु पुण्य क्रिया को छोड़क जब शुद्ध नय से मात्र ज्ञानमय आत्मानुभूति करता है तो वह पुण्य, पाप