Book Title: Titthayara Bhavna
Author(s): Pranamyasagar
Publisher: Unknown

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Page 197
________________ देखो ! जब तुम भगवान् जिनेन्द्र देव के दर्शन करते हो, उनकी पूजन करते हो, उनको श्रद्धा से नमन करते हो, तो इन क्रियाओं से जो थोड़ी भी परिणामों में शान्ति आई। थोड़ा मोह, क्षोभ का अभाव हुआ, वही परिणाम आत्मा का धर्म है। यदि तुमने भगवान् की पूजा आदि क्रिया संसार की विषय इच्छा पूर्ति के लिए की तो वह धर्म नहीं हुआ क्योंकि उससे आपकी आत्मा के परिणामों में मोह, क्षोभ(क्षुब्धता, व्याकुलता) की कमी नहीं हुई। बस! आपकी क्रिया पर ब्लेम(blame), दोष लग गया और तुरन्त उसी भाव पाहुड़ की अगली गाथा ८४ में आचार्य कुन्दकुन्द ने कहा पुण्णं भोगणिमित्तं ण हु सो कम्मक्खय णिमित्तम्॥ अर्थात् इस तरह का पुण्य भोग का निमित्त है, कर्म क्षय का निमित्त नहीं है। यदि आत्मा से कुछ लोभ आदि कषाय कम हो जाती तो कर्म क्षय का निमित्त भी हो जाता किन्तु वैसा हुआ नहीं। इसलिए पुण्य फल की वाञ्छा संसार है और आत्मा का कालुष्य रहित परिणाम धर्म है। यदि एकान्त से शुभोपयोग की पुण्यात्मक क्रियाएँ, वन्दना, पूजन आदि पुण्य ही देती तो स्वयं आचार्य कुन्दकुन्द देव उसी भाव पाहुड़ में भगवान् अरिहन्तों के चरण कमलों की भक्ति करने नहीं बैठते। और उसका फल अष्ट कर्म का क्षय नहीं लिखते। देखो उसी भाव पाहुड़ की गाथा १५३, जो इस प्रकार है जिणवर चरणंबुरुहं णमंति जे परमभन्तिराएण। ते जम्मबेल्लिमूलं खणंति वरभाव सत्थेण॥१५३॥ अर्थात् जो जिनेन्द्र भगवान् के चरण कमल को परम भक्ति और अनुराग के साथ नमन करते हैं वे जीव श्रेष्ठ भावों के शस्त्र से जन्म बेल की जड़ काट देते हैं। विचार करो! यह भी कुन्दकुन्द की वाणी है, जो परम भक्ति और परम(श्रेष्ठ) राग से भगवान् के चरणों को नमन करने की आज्ञा दे रहे हैं। परम भक्ति से अर्थात् उत्कृष्ट भक्ति के साथ। भक्ति कभी बिना राग के नहीं होती है। इसलिए परम भक्ति-राग के साथ नमन करने को कहा है। क्या हेय बुद्धि से नमन करने में भक्ति राग रह सकता है? हेय बुद्धि से नमन करना तो झूठी क्रिया, झूठी पूजा करना है। यह तो पूजा करने के ढोंग से भी बढ़कर ढ़ोंग है। इस गाथा के भावों से भी स्पष्ट होता है कि परम भक्ति राग ही श्रेष्ठ भाव रूपी शस्त्र है। परम भक्ति में फिर सांसारिक विषयाभिलाषा का कोई स्थान नहीं रह जाता है। यह परम भक्ति राग ही श्रेष्ठ शस्त्र है जो आत्मा के मोहनीय आदि कर्मों की सत्तर कोड़ा कोड़ी सागर तक फैलने वाली बेल को जड़-मूल से काट देता है। एक अन्तर्मुहूर्त में इतनी अपार कर्म-स्थिति का क्षय हो जाता है। यह परम भक्ति से ही होगा। हेय बुद्धि से ऐसा कभी नहीं होगा। भक्ति से जब आत्मा की शक्ति बढ़े तो वह भक्ति ही धर्म है। भक्ति से जब कर्म शक्ति बढ़ेगी तो वह अधर्म है। भक्ति शुभोपयोग में ही होती है। राग के साथ ही भक्ति होती है, वीतरागता के साथ भक्ति नहीं होती है। इस अनुराग में, भक्ति में और शुभोपयोग की क्रिया में जब इतनी शक्ति है कि जन्म बेल कट जाती है तो मानतुंग आचार्य के ४८ ताले टूट गये इसमें क्या आश्चर्य की बात है?

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