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अरुहा सिद्धायरिया उज्झाया साहु पंचपरमेट्ठी। ते वि चिट्ठदि आदे तम्हा आदा हु मे सरणं ॥
मोक्ष पा. १०४
अर्थात् अरिहन्त, सिद्ध, आचार्य, उपध्याय और साधु ये पँच परमेष्ठी आत्मा में ही तिष्ठते हैं, इसलिए आत्मा ही मुझे शरण है। इसलिए पंच परमेष्ठी की शरण में रहना आत्मा की शरण में रहना ही है। इन पंच परमेष्ठी में अनुराग रखना ही आत्मा से अनुराग करना है। पंच परमेष्ठी से वात्सल्य अपनी आत्मा से वात्सल्य है। जो जीव इन आत्मिक गुणों में अनुराग रखता है, उसी के प्रवचन वात्सल्य की भावना है।
यह वात्सल्य भाव शुभ राग है। प्रशस्त राग से भी धर्म होता है । प्रशस्त राग को एकान्त से बंध का कारण मानना बहुत बड़ी भूल है। इस प्रशस्त राग से तीर्थंकर नाम कर्म का बन्ध होता है । यह बन्ध स्वयं आत्मा को मुक्त तो कराता ही है, अन्य असंख्य जीवों के लिए भी मुक्ति दिलाता है।
आत्मन्! प्रशस्त राग उनके लिए संसार का या संसार के कारणभूत कर्म बन्ध का कारण है जो मोक्ष चाहते ही नहीं है। जिन्हें मोक्ष की वाञ्छा है उनके लिए यह अनुराग मोक्ष का ही कारण है । यह अनुराग मोक्ष के लिए बाधक नहीं किन्तु सहायक है।
सम्यग्दृष्टि जीव का पुण्य कारण में कार्य का उपचार करने से धर्म है। कुछ लोग पुण्य को धर्म नहीं मानते हैं और धर्म को पुण्य नहीं मानते हैं । 'शुभ क्रिया में पुण्य होता धर्म नहीं। व्रतों से पुण्य होता है, धर्म नहीं। पूजा आदि से पुण्य होता है, धर्म नहीं। इसलिए धर्म करो, पुण्य नहीं । पुण्य तो संसार का कारण है और धर्म कर्मक्षय का कारण है।' ऐसी मान्यता रखने वाले एकान्त निश्चयवादी जीवों का अन्तरङ्ग अभिप्राय कितना कलुषित है ? यह इसी बात से ज्ञात होता है कि वे जीव पूजा करते हुए भी हेय बुद्धि से ही पूजा करते हैं। अरे! पूजक ! जब हेय बुद्धि से ही पूजा करना है तो अपना समय क्यों व्यर्थ कर रहा है ? हेय बुद्धि से की गई पूजा से तेरी आत्मा में पुण्य का बंध नहीं होगा तो निश्चित ही पाप का बंध ही होगा। क्योंकि पाप और पुण्य दो ही आस्रवगत पदार्थ हैं । यदि तुझे पुण्य हेय है तो निश्चित समझ ले कि तुझे पाप उपादेय हो रहा है। पाप-पुण्य से रहित आत्मा तो उनको उपादेय है जो पाप और पुण्य की समस्त क्रियाओं को छोड़कर शुद्धात्म स्वभाव में स्थित हैं । ऐसे श्रमणों की शुद्धोपयोग की कर्मरहित स्थिति को तो तू पा नहीं सकता। पुण्य क्रिया रूप शुभोपयोग तेरी मान्यता में हेय है तो अब तेरे लिए एक मात्र शरण अशुभोपयोग की ही है। आचार्य कुन्दकुन्द देव ने भाव पा. की गाथा ८३ में पुण्य और धर्म को परिभाषित किया । कहा है कि
पूयादिसु वयसहियं पुण्णं हि जिणेहिं सासणे भणियं । मोहक्खोहविहीणो परिणामो अप्पणो धम्मो ॥
अर्थात् जिनेन्द्र भगवान् ने जिनशासन में पूजादिक में व्रत सहित होने को पुण्य कहा है तथा मोह, क्षोभ से रहित आत्मा के परिणाम को धर्म कहा है।