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धर्माचरण विमुख जग जन से करुणा की बुद्धि धारे श्री जिनवाणी उन्हें सुनाकर उपकृत करता जन सारे॥८॥
अन्वयार्थ : [धम्मं चरंतं] धर्म का आचरण करने वाले के प्रति [ दु] तो [ वच्छल्लभावेण ] वात्सल्य भाव से [सिणेहचित्तो ] स्नेह चित्त हुआ [अवेक्खमाणो] उसकी अपेक्षा करता है [य] और [ अणाचरंतं ] अनाचार करने वाले के प्रति [ करुणाद्दबुद्धी ] करुणा से आर्द्र बुद्धि वाला होता हुआ [ जिणुत्तं ] जिनेन्द्र भगवान् द्वारा कहे हुए [तं] उस उपदेश को [ सम्मं ] सम्यक् रूप से [ पयासेज ] दिखाता है।
भावार्थ : धार्मिक जीव को सहधर्मी जीव दो प्रकार के मिलते हैं। १.धर्म का निश्छल भाव से आचरण करने वाले
और २. धर्म का आचरण नहीं करने वाले। इनमें पहले वाले जीवों के प्रति धार्मिक का रुझान वात्सल्य भाव और स्नेह से पूर्ण रहता है। ऐसे सधर्मी की वह उपेक्षा न करके अपेक्षा करता है। उसे अपेक्षा भाव से आगे बढ़ाता है। जो धर्म का सम्यक् आचरण न करके अनाचार मार्ग पर बढ़ता है उसे करुणा से अपनी बुद्धि और भावों को आर्द्र करके जिनेन्द्र भगवान् द्वारा कहे हुए तत्त्व को दिखाकर समझाता है। यदि वह सधर्मी समझने की मानसिकता वाला हो तो ही कुछ कहे, अन्यथा नहीं। उसके प्रति करुणा बुद्धि रखकर जब उचित अवसर कहने का मिले तो बहुत ही मृदुता के साथ कुछ समझाया जावे अन्यथा उसे सुधारने की जल्दी न करे। स्वयं ही उपदेशक को यदि वह भलाबुरा कहे तो उसे भी सुनने की क्षमता रखें। उतावली करते हुए बाद में उसके बारे में बुरा न कहें। धर्म मार्ग पर स्थितिकरण करने के लिए स्वयं उस बन्धु को बहुत सहिष्णु और हितोपदेश में कुशल होना आवश्यक है। मार्ग की प्रभावना के आयाम बहुत से हैं, दृष्टि को समीचीन रखें।