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के अनुसार भाव पाहुड़ में आचार्य कुन्दकुन्द देव ने जो भावों की प्रधानता पर जोर दिया है, वही भाव श्रमण या भावलिङ्ग है। जो उपर्युक्त क्रियाओं और भावनाओं से आत्मभावना करता है, आचार्य कुन्दकुन्द देव उसे भावलिङ्गी साधु कहते हैं। इस श्रामण्य के बिना अनेक बार कुमरण हुआ है। एक बार सुमरण कर। एक बार समाधि की भावना कर।
महाव्रतों की हानि करके, पराश्रित होकर, अनेक औषधियों का सेवन करके तू कितना और जीने की इच्छा करता है। मूलगुणों की महीनों, वर्षों तक विराधना करके कायर की मौत क्यों मरना चाहता है। वीर मरण की भावना कर। एक बार विधिपूर्वक, निर्यापक गुरु के सान्निध्य में समाधिमरण करने का उत्साह बना। एक बार मरणोत्सव मनाने के लिए तैयारी कर। हजार वर्ष तक लाचार बन कर जीने की अपेक्षा एक दिन शेर की तरह जीना श्रेष्ठ है। अरे श्रमण ! तू एक बार सुमरण करेगा तो प्रभावना का कारण बनेगा। सड़-सड़ कर मर गया तो आगे भी कुयोनियों में पड़कर सड़ना पड़ेगा। आचार्य कुन्दकुन्द देव समझा रहे हैं कि
अण्णे कुमरणमरणं अणेयजम्मतराई मरिओसि। भावहि सुमरणमरणं जरमरणविणासणं जीव॥
भाव पा. ३२
अर्थात् हे जीव! इस संसार में अनेक जन्मान्तरों में अन्य कुमरण जैसे होते हैं, वैसे तू मरा। अब तू जिस मरण से जन्म-मरण का नाश हो जाय, ऐसा सुमरण अर्थात् समाधिमरण कर।
देख! आचार्य शान्तिसागर जी, आचार्य ज्ञानसागर जी आदि साधकों ने समाधिमरण करके अपूर्व प्रभावना की है। इस प्रभावना के प्रकरण में समाधिमरण की बात इसीलिए कही जा रही है कि प्रभावना लक्षण वाला यह समाधिमरण बहुत दुर्लभ है। तू प्रभावना करना चाहता है तो सुन, जीवन भर जो प्रभावना की है, उससे कई गुनी प्रभावना, सैकड़ों वर्षों के लिए इस समाधिमरण से होगी। आचार्य पूज्यपाद देव ने सर्वार्थसिद्धि में कहा है'विरक्तविषयसुखस्य तपोभावनाधर्मप्रभावनासुखमरणादिलक्षणः समाधि१रवापः।' अर्थात् जो विषयसुख से विरक्त है उसको तपभावना, धर्मप्रभावना और सुख से मरण आदि लक्षणों वाली समाधि बहुत कठिन है।
अब मार्ग प्रभावना नाम की भावना का उपसंहार करते हैं
धम्मं चरंतं दु अवेक्खमाणो वच्छल्लभावेण सिणेहचित्तो। अणाचरंतं करुणाद्दबुद्धी सम्मंपयासेज यतंजिणुत्तं॥८॥
धर्माचरण निरत भविजन को नेह भाव से लखता है उनकी संगति की भी इच्छा, वत्सल भाव झलकता है।