Book Title: Titthayara Bhavna
Author(s): Pranamyasagar
Publisher: Unknown

View full book text
Previous | Next

Page 190
________________ हे भव्यात्मन्! बड़े-बड़े उपवास, व्रत, तप करना एक तरफ और हित-मित-प्रिय बोलना एक तरफ है। बड़े-बड़े तपस्वी भी कषायाविष्ट होकर जब अप्रिय भाषण करते हैं तो तप की प्रभावना भी अप्रभावना में बदल जाती है। विचार करो! आपने दश दिन तक तप किया। लोगों ने आपकी प्रशंसा, भक्ति करके आपको और जिनधर्म को खूब सराहा। पारणा के दिन अन्त में श्रावक के निमित्त, भोजन के निमित्त, अहंकारवश कषायात्मक प्रवृत्ति कर ली तो सारा किये कराये पर पानी फेर दिया। दश दिन तक जो प्रभावना हुई अन्तिम दिन अप्रभावना में बदल गई। कषाय की परिणति कितनी हानिकारक और अशुभ है कि समस्त शुभ प्रवृत्ति को अशुभ क्षणभर में बना देती है। हे साधक! गुरु महाराज कहते हैं कि वचन गुप्ति को अहिंसा महाव्रत की भावना में रखा है। अहिंसा की रक्षा के लिए भोजन कथा, स्त्री कथा आदि व्यर्थ कथाओं की विकथा से दूर रहो। दुनिया के व्यवहार और परिवार के प्रपंचों की चर्चा में अहिंसा महाव्रत की भावना कमजोर हो जाती है। मन से अशुभ विचार न करना ही मनोगुप्ति है और वचन में मन ही मन अशुभ व्यापार न चलाना ही वचनगुप्ति है। फिर सत्य महाव्रत की भावना में अनुवीचि भाषण की भावना कही है। क्रोध का त्याग, लोभ का त्याग, भीरुता का त्याग, हास्य का त्याग ये चार भावना त्याग रूप हैं और अनुवीचिभाषण करना विधेय रूप हैं। इसलिए सत्य महाव्रत को पालने के लिए अनुवीचि भाषण करना ही श्रेयस्कर है। गुरु महाराज कहते हैं कि बोलने से पहले विचार करो कि हम किस लिए बोल रहे हैं। बोलना आकुलता है। हमारा मुख से निकला हुआ एक शब्द एक समय में ही लोकाग्र तक पहुँच जाता है। तरंगायित होते हुए उससे मध्य रास्ते के असंख्य स्थावर, त्रस जीवों का घात भी सम्भव है। जब हम नहीं बोलेंगे तो हमारा प्रत्येक पल निराकुल और सामायिकमय होगा। श्रमण का साम्य भाव ही चारित्र है। यह चारित्र ही उसका आभूषण है। जिस तरह मैं त्यागी हूँ यह अहंकार भी त्याग देना योग्य है उसी तरह मैंने इतने घंटे की इतनी सामायिक की हैं यह अहंकार भी त्याग देना चाहिए। सामायिक आलस्य और प्रमाद रहित होना चाहिए। श्रेष्ठ साधक साम्य भाव में रत रहकर निरन्तर सामायिक करता है। सामायिक, सामायिक चारित्र को निर्दोष बनाने के लिए और विशुद्धतर करने के लिए है। सामायिक चारित्र रूपी धन की सुरक्षा के लिए सामायिक ताला है। ताला तभी शोभता है जब हमें धन की महत्ता का ज्ञान हो। बड़ा ताला तिजोरी में ही शोभा पाता है। मार्ग की प्रभावना बहिर्मुखी वृत्ति से नहीं अन्तर्मुखी प्रवृत्ति से होती है। कौन मार्ग प्रभावक नहीं है? यह कहते हैं केणावि विहाणेण खुधम्मं विराहिऊण चरइ णग्गो। अंते समाहिरहिओ मग्गपहावणा-परो णेव॥ ७॥

Loading...

Page Navigation
1 ... 188 189 190 191 192 193 194 195 196 197 198 199 200 201 202 203 204 205 206 207