Book Title: Titthayara Bhavna
Author(s): Pranamyasagar
Publisher: Unknown

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Page 196
________________ सो, इस गाथा को लेकर अन्यथा अर्थ निकालकर अपनी धारणाओं को और दृढ़ करना अभिप्राय को नहीं समझना ही है। विचार करो! यहाँ पुण्य और धर्म को अलग-अलग कहते हुए भी उस पुण्य को हेय तो नहीं कहा है। यह भी इस गाथा से अभिप्राय नहीं निकलता है कि पूजा आदि में, व्रत आदि में धर्म नहीं है। यह तो अपने मन का अर्थ करना है। मोह, क्षोभ से रहित परिणाम क्या अपने आप हो जाता है? मोह, क्षोभ से रहित आत्मा के परिणाम को 'चारित्र' प्रवचनसार में कहा गया है। इस चारित्र की प्राप्ति में जो कारण हैं, उन कारणों को भी अनेकान्तवादी कारण में कार्य का उपचार करके धर्म मानते हैं, चारित्र मानते हैं। हे आत्मीय बन्धो! मोह, क्षोभ से रहित आत्मा का परिणाम पूजा आदि और व्रत आदि के बिना नहीं होगा। कारण के बिना कार्य की कल्पना करना आकाश में कुसुम देखना है। बिना कारण के कार्य का होना बिना मातापिता के पुत्रोत्पत्ति का हर्ष मानना है। अनेकान्त के दार्शनिक आचार्य कथन विवक्षा से कारण और कार्य को अलग-अलग भी कहते हैं और कारण और कार्य को एकरूप भी कहते हैं। कथंचित् दोनों तरह से कथन पद्धति को अपनाकर वह स्याद्वाद का निरूपण करते हैं। उसमें से मात्र एकान्त अभिप्राय को पुष्ट करने वाले किसी एक कथन को स्वीकारना और अन्य को असत्य कहना एकान्त मिथ्यात्व है। यदि तुम वास्तव में जानना चाहते हो कि धर्म क्या है? तो प्रवचनसार की आचार्य कुन्दकुन्द की यह गाथा भी पढो चारित्तं खलु धम्मो धम्मो जो सो समो त्ति णिहिट्ठो। मोहक्खोह-विहीणो परिणामो अप्पणो हु समो॥ अर्थात् चारित्र ही धर्म है। जो धर्म है वह साम्य भाव है। मोह और क्षोभ से रहित आत्मा का परिणाम ही साम्य है। अब समझो! कि मोह-क्षोभ से रहित आत्मा का परिणाम कब होता है? आचार्य अमृतचन्द्र जी और आचार्य जयसेन जी की टीका को देखो। वह कहते हैं कि समस्त चारित्र मोहनीय कर्म प्रकृति के क्षय से आत्मा में जो परिणाम उत्पन्न होता है वह धर्म है, वही साम्य है। अब सोचो कि यह धर्म कहाँ पर हो रहा है? चारित्र मोहनीय की सभी कर्म प्रकृतियों का अभाव कौन से गुणस्थान में होता है? बारहवें गुणस्थान में । जिसे क्षीणमोह नाम का गुणस्थान कहते हैं। इससे स्पष्ट हुआ कि धर्म तो १२वे गुणस्थान में ही होता है उससे पहले तो पुण्य ही होता है इसलिए छोड़ दो पुण्य को और प्राप्त कर लो सीधा १२वाँ गुणस्थान। इस जन्म में तो यह सम्भव नहीं है। तो इसका अर्थ क्या लगाएँ? क्या अभी धर्म नहीं होता है? ऐसा भी नहीं है। आज भी धर्म है। और आज भी धर्म ध्यान है। धर्म मोह, क्षोभ के अभाव का ही नाम है। अब जितना मोह, क्षोभ का अभाव आत्मा में हुआ, उतना धर्म हुआ। यह अभाव कैसे होगा? करने से होगा। क्या करने से होगा? पुण्य क्रिया करने से होगा। शुभोपयोग से होगा।

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