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धर्म ग्रहण कर प्रभावना के हेतु छोड़ता जो निज धर्म वो मूरख जग-वैद्य बना है रुग्ण कह रहा औषध मर्म। ज्ञानी जन को हास्य पात्र जो मरण समाधि रहित मुआ अन्त नहीं खुद का यदि संभला क्या प्रभावना अर्थ हुआ?॥७॥
अन्वयार्थ : [ केणावि ] किसी भी [ विहाणेण ] विधान से [ खलु ] निश्चित ही [ धम्मं] धर्म की [विराहिऊण] विराधना करके [णग्गो] नग्न होकर [ चरइ ] जो प्रवृत्ति करता है [ अंते ] वह अन्त में [ समाहिरहिओ ] समाधि रहित होता हुआ [ मग्गपहावणा परो] मार्ग प्रभावना में रत [णेव ] नहीं होता है।
भावार्थ : जो नग्न श्रमण बनकर किसी भी तरह प्रवृत्ति करता है, जो धर्म की विराधना कर देता है, जो किसी भी तरह ईर्यापथ समिति को छोड़कर गमन करता है, जो एषणा समिति को छोड़कर मन चाहे भोजन में मनमाने ढंग से प्रवृत्ति करता है, जो एकेन्द्रिय आदि जीवों का घात करने में नि:संकोच है, जो प्रतिक्रमण, सामायिक अन्य लोगों को भीड़ में कराता है किन्तु स्वयं नहीं करता है, जो अस्नान व्रत, अपरिग्रह व्रत को महत्त्व न देकर शरीर शृंगार से लोगों का मन मोहता है, जो ज्ञात भाव से पाप करके भी खुश होता है, वह मुनिभेष को लजाकर मात्र नग्नमुद्रा धारण करके अपना जीवन निर्वाह कर रहा है। ऐसा नग्न साधु अन्त समय में समाधि के बिना ही मरता है। समाधिमरण के बिना प्राण त्यागने वाला मार्ग की अप्रभावना करता है।
सम्यक समाधिमरण करने से धर्म की अत्यधिक प्रभावना होती है। सच्ची धर्मभावना दीन-हीन जीवों में किसी साधक का समाधिमरण देखने से ही आ जाती है।
हे श्रमण ! बाह्य जिनलिंग को धारण करके तूने कभी रत्नत्रय की भावना नहीं की, तूने कषायों का दमन करने की भावना नहीं की, तूने जीवों में दया भाव धारण नहीं किया, तूने आत्मा की भावना नहीं की, तूने वैराग्य भावना का चिन्तन नहीं किया, तूने स्त्रियों का अवलोकन त्याग कर शील की रक्षा नहीं की, तूने पूजा-लाभ के व्यामोह में उग्रतप, उपवास आदि किये, तूने मायाचारी से जिनभेष धारण किया, तूने भीतर से मिथ्यात्व, असंयम का त्याग नहीं किया, तूने कभी बारह भावनाओं से चित्त वासित नहीं किया, अरिहन्त, चैत्य और गुरु की भक्ति नहीं की, तूने षोड़शकारण भावनाओं में मन नहीं लगाया, मद छोड़कर, गारव को नहीं जीता, तूने श्रुत अभ्यास में मन नहीं भावनाओं से व्रतों की सुरक्षा नहीं की, तूने जिनवर कथित तत्त्व का अभ्यास नहीं किया, तूने पंच परावर्तन के दुःखों की भावना अन्त:करण में नहीं की, तूने जिनलिंग को धारण करके भी भावशुद्धि का विचार नहीं किया, ध्यान और स्वाध्याय से आत्मा की भावना नहीं की, तूने जिनवाणी के उपकार को भक्तिपूर्वक नहीं भाया, तूने जिनलिङ्ग की महत्ता को नहीं जाना।
अरे द्रव्य श्रमण! तू अभी तक इसी कारण से भाव श्रमण नहीं बन पाया। अब तू निरन्तर भाव श्रमण बनने की भावना कर। भाव श्रमण से ही श्रामण्य है। भाव श्रमण या भाव लिङ्गी का सातवाँ-छठवाँ और छठवाँ-सातवाँ गुणस्थान किसी के देखने में नहीं आता है। पहले गुणस्थान के आधार पर जो भाव श्रमण की पहचान बताई थी, वह करणानुयोग के अनुसार जानना । गुणस्थान का ज्ञान प्रत्यक्ष ज्ञान गम्य है । द्रव्यानुयोग के अनुसार और चरणानुयोग