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हो, पहले उस मार्ग पर तो रहो। जो जिनशासन की आज्ञा है और जो गुरुजनों की आज्ञा है उस आज्ञा को बंधन मत समझो किन्तु बन्धन रहित होने के लिए आवश्यक सहारा समझो। जिनशासन में मूलाचार आदि ग्रन्थों के माध्यम से जो आचरण विधि कही है वही विधि धर्म है। वही बन्धन से बचाने का उत्कृष्ट अवलंबन है। आज्ञा का बंधन मार्ग का महान् अवलंबन है। जिनशासन की आज्ञा के अनुरूप ही गुरु आज्ञा मान्य होती है। स्वयं उन्मार्ग पर चलने वाले यदि शिष्यों को वैसी ही सीख देते हैं तो वह गुरु आज्ञा उल्लंघनीय है। उन्मार्ग गामी उन शिष्यों की गुरुभक्ति भी स्वार्थ साधनी है, परमार्थदायिनी नहीं है। संयम के बन्धन में जकड़ा हुआ आत्मा निश्चय से मार्ग प्रभावक है।
जो दीक्षा प्रदान करते हैं, वह गुरु हैं। जो विद्या अध्ययन कराते हैं, वह भी गुरु हैं । जो आचार-शास्त्रों की शिक्षा देते हैं, वह गुरु हैं। प्रायश्चित्त देने वाले आचार्य गुरु हैं। समाधिमरण कराने वाले भी गुरु हैं।
इन गुरुओं के बन्धन में बंधे बिना लक्ष्य प्राप्ति नहीं हो सकती है। गुरु चित्त को शुद्ध करके साधक को लक्ष्य की ओर बढ़ाते हैं। गुरु आज्ञा बंधन का यह व्यवहार जिनाज्ञा है। जिनाज्ञा निश्चय से आत्महितंकरी है। आज्ञा में रहना अनुशासन है, यही जिनशासन है।
अनुशासन में रहे बिना जब लौकिक परीक्षा में उत्तीर्ण नहीं हो सकते तो संसार से उत्तीर्ण होने की बात जिनाज्ञा के बिना कैसे सम्भव है?
मार्ग प्रभावना में तत्पर श्रमण या श्रावक जिनशासन के अनुसार ही चलता है। जिनशासन की आज्ञा में तत्पर रहता हुआ कोई नया शासन बनाने का दम्भ नहीं रखता है। अहो! शुद्धात्मन् ! विचार करो, इस हुण्डावसर्पिणी काल में चौबीस तीर्थंकर हुए हैं। उन तीर्थंकरों के द्वारा तीर्थ का प्रवर्तन तो हुआ किन्तु किसी ने अपने अनुसार नया तीर्थ नहीं चलाया। सभी तीर्थंकरों ने जिनशासन को आगे बढ़ाया है। जो नये नाम देकर नयी नियमावली बनाकर अपना प्रभाव जनता में दिखाकर नये मार्ग को चलाये हैं, वे छद्मस्थ जीव जिनशासन का विच्छेद करके गये हैं। अपने नाम के व्यामोह से अपनी अलग पहिचान तीर्थंकरों जैसे महान् पुण्यशाली आत्माओं ने नहीं बनाई तो तुम क्यों जिनशासन में नए भेद डालकर जिनशासन से हट रहे हो। एक तीर्थंकर ने अन्य तीर्थंकर के तीर्थ का कभी खण्डन नहीं किया है। सभी तीर्थंकरों ने एक समान दिव्यध्वनि से जिनशासन को आगे बढ़ाया है। जिनशासन रूपी रथ के चालक बनकर कुछ समय तक चौबीस तीर्थंकरों ने मोक्षमार्ग पर दूसरों को चलाया है और स्वयं चले हैं। जिस किसी ने अपने अहंकार से इस तीर्थ पर अपनी नई छाप लगाने की कोशिश की वे छदमस्थ जीव तो इस जिनशासन से अलग हो गए हैं। वे स्वयं मोक्षमार्गी नहीं रहे और न दूसरे जीवों के लिए मोक्षमार्ग में सहायक हो सके हैं।
पुनः विचार करो कि 'जिन शासन' में 'जिन' संज्ञा उन आत्माओं की है जिन्होंने इन्द्रियों और कषायों को जीता है। जिन्होंने आत्मा के दुष्कर्मों पर विजय प्राप्त करके 'अर्हन्' पद प्राप्त किया है ऐसे महान् सर्वज्ञ भगवन्तों के शासन को 'जिनशासन' कहा जाता है। सभी तीर्थंकर विशिष्ट संज्ञा, विशिष्ट पुण्य को धारण करते हुए भी 'जिन' इस सामान्य संज्ञा में समाहित हो जाते हैं। इसलिए यह जिन शब्द व्यक्तिवाची नहीं है, क्रियावाची नहीं है किन्तु गुणवाची है।