Book Title: Titthayara Bhavna
Author(s): Pranamyasagar
Publisher: Unknown

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Page 177
________________ १. इन महापुरुषों का सम्यक्त्व भी वास्तव में सराग सम्यग्दर्शन है। सराग सम्यक्त्व को ही व्यवहार सम्यक्त्व कहते हैं। इनके सम्यग्दर्शनों को यदि कहीं निश्चय सम्यग्दर्शन कहा गया है, तो वह उपचार से है। निश्चित रूप से इनको निश्चय सम्यक्त्व की प्राप्ति होगी और उस निश्चय की प्राप्ति का परम्परा से साधक यह व्यवहार या सराग सम्यक्त्व है। विचारणीय है कि भरत, सगर, राग आदि सभी क्षायिक सम्यग्दृष्टि जीव हैं । इन क्षायिक सम्यग्दृष्टि जीवों का सम्यग्दर्शन भी सराग सम्यग्दर्शन है, वीतराग नहीं । वीतराग सम्यग्दर्शन वीतराग चारित्र के साथ होता है । वीतराग चारित्र का गृहस्थ अवस्था में अभाव है। यह वीतराग चारित्र इन्हें मुनि बनने के बाद अवश्य प्राप्त होगा, इसलिए परम्परा से कारण होने से सराग सम्यक्त्व को वीतराग कह दिया जाता है । इससे इस भ्रान्ति का निराकरण होता है कि‘क्षायिक सम्यक्त्व तो शुद्ध है । उसमें सराग, वीतराग का भेद नहीं करना चाहिए।' यदि सराग, वीतराग का भेद न किया जाएगा, तो साध्य - साधक के बीच की भेदरेखा ही मिट जाएगी। कार्य-कारण व्यवस्था ही समाप्त हो जाएगी। जब क्षायिक सम्यग्दृष्टि का सम्यग्दर्शन भी सराग, व्यवहार सम्यग्दर्शन है, तो वर्तमान में होने वाले उपशम और क्षयोपशम सम्यक्त्व को निश्चय या वीतराग सम्यग्दर्शन कैसे कहा जा सकता है? यह भी कितनी विचित्र बात है एक तरफ तो कुछ भगवान् आत्माएँ परम्परा कारण को ही महत्त्व नहीं देती हैं, मात्र कार्य से पूर्व क्षणवर्ती साक्षात् कारण को ही कारण मानते हैं और इधर अपने सम्यग्दर्शन को वीतराग सम्यग्दर्शन सिद्ध करने के लिए उपचार संज्ञा को ही मुख्य संज्ञा मान ली है। जो निश्चय संज्ञा भविष्य में प्राप्त होगी, अभी वस्तुत: वह उसका अधिकारी नहीं है, ऐसे कारण में कार्य का उपचार करके सराग सम्यक्त्व को वीतराग कह दिया है, वह भी उनके लिए जो निश्चित ही क्षायिक सम्यग्दृष्टि हैं और उसी भव में दीक्षा ग्रहण करके नियम से वीतराग चारित्र के अविनाभावी वीतराग सम्यक्त्व को प्राप्त करेंगे। जिन्हें इस भव में मोक्ष नहीं है, उन्हें तो कदापि वीतराग सम्यग्दृष्टि उपचार से भी नहीं कहा जा सकता है। २. इस टीका से यह भी स्पष्ट होता है कि भरत चक्रवर्ती क्षायिक सम्यग्दृष्टि होकर भी विषय, कषाय, दुर्ध्यान से आत्मा को बचाने के लिए पंच परमेष्ठी की पूजा और दान आदि शुभोपयोग की क्रियाएँ करते रहते थे । यह सराग चेष्टाएँ भी उनके संसार की स्थिति को छेदने के लिए होती हैं। 'संसारस्थितिच्छेदनार्थं च दानपूजादिकं कुर्वन्ति' इस वाक्य से अपनी बुद्धि में यह दृढ़ निश्चय कर लेना चाहिए कि शुभ राग से होने वाली सराग चेष्टाएँ मात्र पुण्यबंध का कारण नहीं होती हैं, किन्तु उनसे संसार की स्थिति का घात भी होता है । संसार की स्थिति का घात करने वाली दान, पूजा आदि क्रियाओं से यदि कोई गृहस्थ पुण्यबंध के भय से वंचित रहता है, तो उसका सराग सम्यग्दर्शन भी संशय की कोटि में आ जाएगा। ३. इस टीका से यह भी स्पष्ट होता है कि वे महापुरुष क्षायिक सम्यग्दृष्टि होकर भी स्तुति करते थे, वंदना करते थे और उनके चरित्र, पुराण आदि प्रथमानुयोग के ग्रन्थों को भी भक्ति से श्रवण करते थे । प्रथमानुयोग को मात्र कहा किस्से कहकर जिनवाणी की अविनय नहीं करते थे। ४. इस टीका से यह भी स्पष्ट होता है कि निश्चय सम्यक्त्व उनके पास गृहस्थ दशा में नहीं होता है। निश्चय सम्यक्त्व या वीतराग सम्यक्त्व एक बात है । इस क्षायिक सम्यग्दर्शन को वीतराग सम्यग्दर्शन की संज्ञा आचार्य अकलंक देव I

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