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ने राजवार्तिक ग्रन्थ में दी है। आत्मविशुद्धिमात्रमितरत्' अर्थात् वीतराग सम्यक्त्व में आत्मविशुद्धि मात्र रहती है। इसी वार्तिक में लिखा है कि सात कर्म प्रकृतियों का अत्यन्त क्षय होने पर उस क्षायिक सम्यग्दृष्टि के जो आत्मविशुद्धि मात्र रहती है, वह वीतराग सम्यक्त्व कहा जाता है। बहुत समय से चली आ रही इस जिज्ञासा का समाधान नहीं मिल रहा था कि क्षायिक सम्यक्त्व क्यों कहा? परमात्मप्रकाश ग्रन्थ की यह टीका स्पष्टतः इस समाधान को प्रस्तुत करती है कि क्षायिक सम्यग्दृष्टि उन भरत आदि को यह संज्ञा उपचार से है, परमार्थ से नहीं, वास्तव में नहीं।
श्री षट्खंडागम में इस मार्ग प्रभावना' नाम की भावना को 'पवयणप्पहावणदाए' नाम से कहा है। इसकी व्याख्या में कहा है कि- प्रवचन प्रभावना से तीर्थंकर नाम कर्म बंधता है। आगमार्थ का नाम प्रवचन है। उसके वर्णजनन अर्थात् कीर्ति विस्तार या वृद्धि करने को प्रवचन की प्रभावना और उसके भाव को प्रवचन प्रभावना कहते हैं। उससे तीर्थंकर कर्म बंधता है।
आगे और भी कहते हैं
सद्दिट्ठिणाणचरणं झायइ सयं पयच्छदि वा अण्णं। मग्गपयासुज्जुत्तो मग्गपहावणा-परो सो हि॥ २॥
सम्यक् दर्शन-ज्ञान-चरण को जो नित ध्याता ध्यानी है औरों को उपदेश दे रहा वो भविजन ही ज्ञानी है। दुर्लभ से दुर्लभतम मारग जिनवर का सब को हो ज्ञात शिवमारगरत वही सन्त ही स्वयंजगत मेंहो विख्यात॥२॥
अन्वयार्थ : [ सद्दिट्ठिणाणचरणं] सम्यग्दर्शन, ज्ञान, चारित्र को [ सयं] स्वयं [झायइ ] ध्याता है [ वा ] अथवा [अण्णं] अन्य को [ पयच्छदि] प्रदान करता है [ मग्गपयासुजुत्तो] मार्ग के प्रकाशन में उद्युक्त [ सो] वह [हि] ही [ मग्गपहावणापरो] मार्ग की प्रभावना में तत्पर है।
भावार्थ : हे आत्मन् ! सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र को अपनी आत्मा में रुचिपूर्वक ध्यान का विषय बनाना। यह इसलिए कहा जा रहा है कि सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान मात्र ज्ञान का विषय न बना रह जाए और सम्यक् चारित्र मात्र क्रिया का विषय न रह जाए इसलिए ध्यान में इन तीनों की अनुभूति करो। निश्चय रत्नत्रय से स्वात्मधर्म की प्रभावना करना स्वमार्ग की प्रभावना है। और इस रत्नत्रय को अन्य भव्यात्मा को प्रदान करना जिनधर्म की प्रभावना है। इस तरह जो जीव उद्यत रहता है वह मार्ग के प्रकाशन में उद्यत है। व्यवहार और निश्चय दोनों ही मार्ग हैं। दोनों तरह से धर्म का प्रकाशन करना ही मार्ग प्रभावना है। कहा भी है
जड़ जिणमयं पवज्जह ता मा ववहारणिच्छए मुयह। एक्कण विण छिज्जइ तित्थं अण्णेण उण तच्चं॥