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यदि तुम जिनमत की प्रभावना या प्रवर्तन करना चाहते हो तो व्यवहार और निश्चय में से किसी को मत छोड़ना। क्योंकि एक के बिना तीर्थ का उच्छेद हो जाएगा और दूसरे के बिना तत्त्व का उच्छेद हो जाएगा।
हे मोक्षमार्गिन् ! व्यवहार और निश्चय दोनों प्रकार के मोक्षमार्ग का समादर करो। व्यवहार मोक्षमार्ग झूठा नहीं है। व्यवहार को झूठा कहने पर निश्चय की प्राप्ति कभी नहीं होगी। जब कारण ही असत्य होगा तो कार्य सत्य कैसे होगा? व्यवहार को झूठा कहने से वस्तु व्यवस्था ही बिगड़ जाएगी। अनेकान्त दर्शन की रीढ़ ही चरमरा जाएगी। अनेकान्त दर्शन उसी को कहते हैं जिसमें प्रत्येक गुणधर्म का समादर किया जाता है। प्रत्येक पहलू, प्रत्येक धर्म दूसरे धर्म की अपेक्षा रखता है। गौण-मुख्य व्यवस्था से यह दर्शन किसी का निराकरण नहीं करता है। यदि वस्तु के किसी एक धर्म को सच्चा कहोगे तो एकान्तवाद का प्रसंग आ जाएगा।
हे विज्ञात्मन् ! जो कारण कार्य को सम्पादित कर देता है, उस कारण को झूठा कह देना बहुत बड़ी कृतघ्नता है। आचार्यों की उपकारी दृष्टि देखो कि प्रत्येक द्रव्य के उपकार का वर्णन तत्त्वार्थ सूत्र में किया है। काल द्रव्य, धर्म द्रव्य आदि उदासीन निमित्तों को उपकार के रूप में स्वीकारा है। उपकार व्यवहार में ही होता है निश्चय में नहीं।
कोई द्रव्य किसी द्रव्य का कुछ नहीं करता है, यह निश्चय नय का कथन है। निश्चय नय से एक द्रव्य के गुण किसी द्रव्य के गुणों में अन्तर नहीं कर सकते हैं। निश्चय से कोई द्रव्य किसी द्रव्य का कुछ नहीं करता है। यह कथन भी सच है ऐसा मानना अनेकान्त है और यह कथन ही सत्य है, ऐसा मानना एकान्त है। व्यवहार नय से एक द्रव्य दूसरे द्रव्य को प्रभावित करता है। निमित्त कारणता व्यवहार नय से है। इसी व्यवहार की दृष्टि से सिद्ध भगवान् लोकाकाश के अग्रभाग पर स्थित हैं। अधर्मास्तिकाय का उपकार है जो शुद्ध आत्म द्रव्य लोक के अग्रभाग पर अनन्त काल तक स्थिर रहता है। इसी तरह धर्म द्रव्य का उपकार है कि वह सिद्ध भगवान् लोकाकाश से बाहर नहीं गए। इस निमित्त कारणता को यदि हम स्वीकार नहीं करेंगे तो वस्तु तत्त्व की प्ररूपणा अधूरी रहेगी। भगवान् सिद्ध अपने गुणों, अपनी पर्यायों से सतत परिणमनशील हैं, यह निश्चय से सत्य है तो भगवान् सिद्ध धर्मास्तिकाय के अभाव में और ऊपर गमन नहीं कर सकते हैं, यह व्यवहार नय से सत्य है।
निश्चय मोक्षमार्ग अभेद, अखण्ड रूप है तो व्यवहार मोक्षमार्ग भेद, विकल्प रूप है। दोनों की अपनी-अपनी उपयोगिता है।
श्री समयसार में निश्चय की मुख्यता से कथन होता है। वहाँ लिखा है कि कोई जीव किसी जीव को दुःख नहीं दे सकता है, कोई जीव किसी को सुखी नहीं कर सकता है। निश्चय नय की अपेक्षा से यह कथन सत्य है। वहाँ यह भी लिखा है कि दुःखी और सुखी तो जीव अपने कर्म के उदय से होता है। यह भी सच है किन्तु यह सर्वथा सत्य नहीं है।
जब हम किसी जीव को सुखी बनाने के लिए सहायता कर रहे हों, उसकी हर प्रकार से मदद कर रहे हों फिर भी वह जीव जब सुखी नहीं हो पाए तो उसके लिए यह सिद्धान्त सत्य है कि कोई जीव किसी को सुखी नहीं कर सकता है। इसी तरह दुःख के विषय में जानना।