Book Title: Titthayara Bhavna
Author(s): Pranamyasagar
Publisher: Unknown

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Page 176
________________ राम-पाण्डवश्रेणिकादयोऽपि शुद्धात्मानं पृच्छन्तीति।" इस टीका से स्पष्ट है कि भरत चक्रवर्ती, सगर चक्रवर्ती, राम बलभद्र, पाण्डव, श्रेणिक आदि भी भगवान् के समवसरण में शुद्धात्मा को पूछते हैं। ये भव्य आत्माएँ आसन्नभव्य होने के कारण भेद-अभेद रत्नत्रय की भावना में अनुराग रखते हैं। परमात्मा की भावना से उत्पन्न वीतराग परमानंदरूप अमृतरस के प्यासे होते हैं। वे इस अमृतरस से विपरीत नरक आदि चार गतियों के द:खों से भयभीत रहते हैं। इसलिए परमात्मा के स्वरूप को जानकर अपनी बहिरात्म वृत्तियों को छोड़कर अन्तरात्मा में स्थित होकर शुद्धात्मा की भावना करें, यह प्रत्येक मुमुक्षु का लक्ष्य होता है। ऐसी आत्मरुचि निर्मल आत्मा के भावों से उत्पन्न होती है। इस परमात्मा की भावना को वे महापुरुष तब पूछते हैं, जब अन्य सभी प्रकार के अनुयोगसम्बन्धी प्रश्नों को वह पूछ चुके हों। इस प्रसंग में एक बहुत अच्छी बात भी टीकाकार ने लिखी है कि 'सर्वागमप्रश्नानन्तरं सर्वप्रकारोपादेयं शुद्धात्मानं पृच्छन्तीति' अर्थात् समस्त आगम के प्रश्नों के बाद सब तरह से उपादेय शुद्धात्मा की बात पूछते हैं। इससे स्पष्ट होता है कि प्रत्येक भव्य मुमुक्षु को, ज्ञानी आत्मा को सर्वप्रथम प्रथमानुयोग, फिर करणानुयोग, फिर चरणानुयोग, तदुपरान्त द्रव्यानुयोग के ग्रन्थों का अध्ययन करना चाहिए। इसी द्रव्यानुयोग में नय, न्याय और अध्यात्म ग्रन्थ भी आते हैं, इसलिए नयज्ञानपूर्वक शुद्धात्मा की भावना करनी चाहिए और पूछनी चाहिए। तद्भवमोक्षगामी इन भरत आदि महापुरुषों की और एकादि भव के उपरान्त नियम से मोक्ष जाने वाले इन आसन्न भव्य जीवों की प्रवृत्ति कैसी होती है? इनका सम्यग्दर्शन सराग है या वीतराग है? इनको शुद्धात्मा की भावना होती है या अनुभूति होती है? इस तरह की जिज्ञासा का समाधान इसी ग्रन्थ के पृष्ठ १३३ पर कुछ इस तरह है "शुद्धात्मभावनाच्युताः सन्तः भरतादयो निर्दोषिपरमात्मनामर्ह सिद्धानां गुणस्तववस्तुस्तवरूपस्तवनादिकं कुर्वन्ति तच्चरितपुराणादिकं च समाकर्णयन्ति संसारस्थितिच्छेदनार्थं च दानपजादिकं कर्वन्ति तेन कारणेन शभरागयोगात सरागसम्यग्दष्टयो भवन्ति। या पनस्तेषां सम्यक्त्वस्य निश्चयसम्यक्त्वसंज्ञा वीतरागचारित्राविनाभूतस्य निश्चयसम्यक्त्वस्य परम्परया साधकत्वादिति। वस्तवृत्त्या तु तत्सम्यक्त्वं सरागसम्यक्त्वाख्यं व्यवहारसम्यक्त्वमेवेति भावार्थः।" अर्थात्- शुद्धात्मा की भावना से रहित हुए वे भरत आदि निर्दोष परमात्मा अरहंत सिद्धों के गुणस्तवन, वस्तुस्तवन, रूपस्तवन रूप स्तोत्र आदि करते हैं और उनके चरित्र, पुराण आदि को सुनते हैं। तथा इनके आराधक आचार्य, उपाध्याय, साधु जनों की भक्ति से दान, पूजा आदि करते हैं । यह शुभ कार्य विषयकषाय, दुर्ध्यान से बचने के लिए और संसार की स्थिति का छेद करने के लिए होता है। इसी कारण शुभराग का योग होने से वे सराग सम्यग्दृष्टि होते हैं। फिर इन महापुरुषों के सम्यक्त्व को निश्चय सम्यक्त्व की संज्ञा जो दी जाती है, वह वीतरागचारित्र के अविनाभावी निश्चय सम्यक्त्व का परम्परा से साधक होने के कारण होती है। वस्तुत: तो उनका सम्यक्त्व सरागसम्यक्त्व नाम का व्यवहार सम्यक्त्व ही है। इससे स्पष्ट होता है कि

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