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है। व्यवहार सम्यग्दर्शन, व्यवहार सम्यग्ज्ञान और व्यवहार सम्यक् चारित्र व्यवहार रत्नत्रय है। यही व्यवहार मोक्षमार्ग है। निश्चय सम्यग्दर्शन, निश्चय सम्यग्ज्ञान और निश्चय सम्यक् चारित्र निश्चय रत्नत्रय है। यही निश्चय मोक्षमार्ग है।
व्यवहार मोक्षमार्ग उपचार मार्ग है और निश्चय मोक्षमार्ग मुख्य मार्ग है।
निश्चय मोक्षमार्ग को प्राप्त हुए जीव आत्मस्थ होते हैं । निश्चय में सब कुछ आत्म रूप होता है। श्रद्धान, ज्ञान, चारित्र का विषय आत्मा मात्र होता है। आत्मा को छोड़कर अन्य विकल्प होना, भले ही वह तत्त्व सम्बन्धी हो वह व्यवहार मोक्षमार्ग होता है।
'मुख्योपचार दुभेद यूं बडभागि रत्नत्रय धरें।'
अर्थात् जो मुख्य या उपचार रत्नत्रय धारण करते हैं, वह बड़े भाग्यवान् हैं । ऐसे भाग्यवान् जीव मुनिराज ही होते हैं। रत्नत्रयधारी मुनिराज ही होते हैं । गृहस्थ कभी रत्नत्रयधारी नहीं होता है। रत्नत्रय की पहिचान बाह्य में निर्ग्रन्थ रूप से होती है। बाहर से दिगम्बर हुए बिना रत्नत्रयधारी कहा ही नहीं जा सकता है। जहाँ दिगम्बरत्व नहीं है वहाँ रत्नत्रय नहीं है और जहाँ रत्नत्रय है वहाँ दिगम्बरत्व अवश्य है। यह अन्वय-व्यतिरेक व्याप्ति है।
अरे! प्रिय आत्मन् ! तुम भी बड़भागी बनो। बड़भागी बनना सभी को रुचता है परन्तु श्रावकपने में यह बड़भाग कहाँ? ऐ अविरत सम्यग्दृष्टि गृहस्थ! एक असंयमी श्रावक यदि अपने आप को रत्नत्रयधारी मानता है तो वह अपने को छल रहा है। ऊपर की भूमिका में जो घटित होता है उसे निचली भूमिका में बलात् मानना मोक्षमार्ग को मिटा देना है।
आज गृहस्थ अपने को रत्नत्रय का अधिकारी मानता है। वह भी सीधा निश्चय रत्नत्रय मानता है, व्यवहार नहीं। व्यवहार रत्नत्रय में तो अट्ठावीस मूलगुणों का पालन, व्रत, समिति आते हैं सो व्यवहार रत्नत्रय तो कहीं से कहीं तक सम्भव ही नहीं है। ऐसी स्थिति में क्या करें? क्योंकि बिना रत्नत्रय के मोक्षमार्गी नहीं कहला सकते हैं। दुनिया में अपने को मुमुक्ष कहा जाए और मोक्षमार्गी भी न हों, यह कैसे सम्भव है? और फिर शुद्धोपयोग भी बिना रत्नत्रय के नहीं होता है। अपने पास शुद्धोपयोग है, ऐसी सिद्धि नहीं कर पाएँगे तो फिर शुभोपयोग का विरोध करके अपनी ही हानि होगी। ऐसी बिगड़ी दशा को सुधारने का प्रयास कुछ चालाक लोगों ने किया। सीधा अपने को निश्चय रत्नत्रयधारी आत्मा मानो। सीधा अपने में निश्चय मोक्षमार्ग मानो। व्यवहार रत्नत्रय या व्यवहार मोक्षमार्ग तो क्रियाकाण्ड है। व्यवहार को मिथ्या सिद्ध करो। बिना व्यवहार के निश्चय की सिद्धि करो। निश्चय को पहले रखो, व्यवहार को बाद में तो सारी बाजी पलट जाएगी और अपने घर बैठे शुद्धोपयोगी, निश्चय मोक्षमार्गी कहलाएँगे।
देखो! निश्चयैकान्तवादी लोग किस तरह अपने अन्दर निश्चय रत्नत्रय मानते हैं। उनका कहना है कि
अपनी आत्मा का श्रद्धान होना ही निश्चय सम्यग्दर्शन है। सो अपनी आत्मा का हमें श्रद्धान है। अपनी आत्मा का ज्ञान होने से हमें निश्चय सम्यग्ज्ञान है। और जितनी देर तक ऐसे आत्मा में उपयोग लगा रहे, लीनता रहे सो निश्चय चारित्र। हो गए तीनों अपनी आत्मा में, इसी को कहते हैं शुद्धोपयोग।