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उस पुण्य से कोई सांसारिक फल की चाह मत करना। पुण्य के फल से अपने आप बिन मांगे जो मिले, उसे मिलने दो। उससे तुम्हें कोई हानि नहीं होगी किन्तु उस पुण्य से संसार वृद्धि की, पुत्र, पुत्री, धन, वैभव, पद की लालसा नहीं करना, तुम्हें किसी न किसी भव में मुक्ति अवश्य मिलेगी। यही इस भावना का सार है।
जो तुम्हें पुण्य के बंध से डराए उस पापी से तुम डरना।
अरे! बन्धो! तद्भव मोक्षगामी तीर्थंकर, पाण्डव, राम सदृश महापुरुषों के चारित्र पढ़ो। पाण्डव, राम सदृश महापुरुष तो जिनेन्द्र भगवान् की पूजन-आराधना से ही वनवास काल में प्रसन्न रहे हैं। ये लोग भगवान् के समक्ष अपनी आत्मा का गुणगान नहीं करते थे अपितु भगवान् की आत्मा और शरीर का पुलकित शरीर होकर गुणानुवाद करते थे। इस भक्ति से उनका संसार बढ़ा नहीं किन्तु नष्ट ही हुआ है। इसलिए सम्यक् मार्ग पर चलो। पहले भक्त बनो फिर भगवान् बनो।