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क्या समझे भोले प्राणी? मोही को तो घर बैठे मोक्ष दिखा दो, तो उसे क्या हानि है?
हे आत्मन् ! यदि मोक्षमार्ग इतना ही सरल और सुलभ होता तो मुनियों को गृहत्याग करके बावीस परीषह सहन करने का कष्ट क्यों उठाना पड़ता?
हे आत्मन् ! जैसे-जैसे आत्मा को उपरिम दशा का अनुभव होता जाता है, उस उपरिम दशा में कोई विशेष व्याख्यान नहीं होता है। उपरिम दशा की परिभाषा बहुत छोटी होती है।
निश्चय में दर्शन, ज्ञान, चारित्र का भेद ही नहीं है। सब कुछ आत्म रूप होता है। पेय-पानक-ठंडाई की तरह सब कुछ वहाँ एकमेक होता है। जो एकत्व विभक्त आत्मा का अनुभव एकत्व वितर्क नाम के दूसरे शुक्लध्यान में होता है, उस एकत्व, समरसीपने का आनन्द घर बैठे सिद्ध करना आत्मवंचना नहीं तो और क्या है?
निश्चय मोक्षमार्ग पानक की तरह है। जहाँ सम्यग्दर्शन, ज्ञान, चारित्र में से कोई एक भी है वहाँ तीनों होते हैं। निश्चय में आत्मा मात्र का अनुभव है। निश्चय में तीनों अलग-अलग कहे जाने पर भी एक ही स्थिति का भान कराते हैं। जहाँ निश्चय सम्यग्दर्शन है वहाँ निश्चय सम्यग्ज्ञान, निश्चय सम्यकचारित्र भी है। इसी तरह निश्चय सम्यग्ज्ञान
और निश्चय चारित्र के साथ जानना। इस निश्चय मोक्षमार्ग का प्रारम्भ समस्त व्यवहार को छोडकर अप्रमत्त अवस्थ में ध्यान की स्थिति से होता है। सातवें गुणस्थान से यह निश्चय मोक्षमार्ग प्रारम्भ होता है और बारहवें गुणस्थान तक यह मार्ग चलता है तब कहीं अरिहन्त अवस्था प्राप्त कर आत्म वैभव की मंजिल पाता है।
आचार्य योगीन्दुदेव विरचित 'परमात्मप्रकाश' ग्रन्थ एक उच्च कोटि का परम आध्यात्मिक ग्रन्थ है। यह ग्रन्थ अपभ्रंश भाषा की अद्वितीय कृति है। इस ग्रन्थ पर श्री ब्रह्मदेव की संस्कृत वृत्ति ग्रन्थ के हार्द को बड़े सरल शब्दों में नयों की समायोजना के साथ स्पष्ट करती है। इस ग्रन्थ की संस्कृत टीका आत्मा सम्बन्धी कई भ्रान्तियों को दूर करती है। वर्तमान में एकान्त निश्चय नय का आग्रह श्रावकों में बहुत जोर-शोर से बढ़ रहा है। उन भ्रान्त आत्माओं को सम्यक पथ दिखलाने के लिये यह टीका बहुत ही महत्त्वपूर्ण है। सर्वज्ञ प्रणीत परमागम पर श्रद्धा रखने वाले मुमुक्षु को यह बहुत ही पठनीय, मननीय एवं प्रयोजनीय है। परमात्मप्रकाश और उसकी टीका के माध्यम से कुछ ऐसी ही प्रचलित भ्रान्त धारणाओं को दूर करने का यह किञ्चित् प्रयास है।
निकट भव्य जीव की भावना कैसी होती है?
आत्महित के इच्छुक प्रत्येक भव्य जीव की भावना संसार तट के निकट आने पर शुद्धात्मा को जानने, समझने और प्राप्त करने की होती है। जैसा कि ब्रह्मदेव सूरि परमात्मप्रकाश ग्रन्थ के प्रथम अधिकार के ११वें दोहासूत्र में लिखते हैं
"भेदाभेदरत्नत्रयभावनाप्रियाः परमात्मभावनोत्थवीतरागपरमानन्दसुधारसपिपासिता वीतरागनिर्विकल्पसमाधिसमुत्पन्नसुखामृत-विपरीतनारकादिदुःखभयभीता भव्यवरपुण्डरीका भरत-सगर