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हे साधक! इन आवश्यक क्रियाओं को निश्चय चारित्र की प्राप्ति के लिए करो। यदि निश्चय चारित्र इस भव में प्राप्त न भी हो तो भी कोई बात नहीं। यह व्यवहार चारित्र ही प्रति समय गुणश्रेणी निर्जरा कराता रहता है। इस व्यवहार चारित्र को साध्य समझने की भूल मत करना। इस व्यवहार से निश्चय प्राप्ति की भावना बार-बार करना। जितना हो सके इस व्यवहार चारित्र को धारण कर निश्चय में जाने की रुचि करो। बार-बार आत्मा का स्पर्श करो। बार-बार उपयोग की धारा को उपयोग में ही स्थिर करने का भाव करो। वर्तमान में यही निश्चय चारित्र है। यही आत्मानुभूति है। यही षट् आवश्यकों की परिपूर्णता है।
अब आवश्यक अपरिहाणि भावना का उपसंहार करते हैं
लोगाणुरंजे णिरवेक्खसाहू, आवासएसुप्पणिधाण सीलो। जहाविसिस्सो सयलेसु बुद्धो पुण्णंककंखी विसएसु होदि॥ ९॥
जनरंजन का ध्यान छोड़कर नित्य निरंजन आतम में मन वच तन के द्वारा रमता साधू षट् आवश्यक में। ज्यों विशिष्ट विद्या का अर्थी पूर्ण अंक की चाह रखे त्योंही श्रमण सभी आवश्यक पूर्ण करन की चाह रखे॥९॥
अन्वयार्थ : [ लोगाणुरंजे ] लोक का रंजन करने में [णिरवेक्ख साहू ] निरपेक्ष साहू [ आवासएसु] आवश्यकों में [ पणिधाण-सीलो] प्रणिधान शील होता है [ जह ] जैसे [विसिस्सो ] विशिष्ट शिष्य [ बुद्धो] बुद्धिमान हुआ [ सयलेसु विसएसु] सभी विषयों में [ पुण्णंक-कंखी ] पूर्णांक की चाह रखने वाला होता है।
भावार्थ : हे आत्मन् ! जैसे बुद्धिमान मेधावी छात्र सभी विषयों में पूर्णांक प्राप्ति की इच्छा रखता है उसी प्रकार मोक्ष पथ का पथिक प्रत्येक आवश्यक को आदर के साथ पूर्ण करता है। प्रत्येक आवश्यक का महत्त्व बराबर समझते हुए वह सभी आवश्यकों को रुचिपूर्वक समय पर करता है।
___ मोक्ष का पथिक पूर्णांक की चाह रखते हुए भी पुण्य की चाह नहीं रखता है। पुण्य की चाह नहीं होते हुए भी सर्वाधिक पुण्य भी ऐसे ही अप्रमत्त साधक की आत्मा में बंधता है। जो जितना-जितना अप्रमत्त बनता जाता है पुण्य का बंध उतने ही अधिक अनुभाग के साथ होता है। विशुद्धि से पाप प्रकृति का अनुभाग घटता है। इस सिद्धान्त के अनुसार क्षपक श्रेणी में सूक्ष्मसाम्पराय नाम के दशवें गुणस्थान में पुण्य प्रकृति का अनुभाग सर्वोत्कृष्ट होता है। ऐसी स्थिति में पुण्य कर्म के बंध से वही बच सकता है जो नरक-निगोद में अपरिमित काल तक पचता है।
बिना गुरु के अध्ययन किए कुछ लोग इस पुण्य से ऐसे बचते हैं जैसे विष्ठा को देखकर लोग बचते हैं। ऐसे लोगों ने तो इस पुण्य को विष्ठा कहने में संकोच नहीं किया है। अब बताओ मित्र! इस विष्ठा का लेप आत्मा में और अधिक होने से तो सर्वज्ञ भी नहीं बचा सकते हैं। स्वयं सर्वज्ञ भी जब इससे नहीं बचे तो अपने भक्तों को क्या