Book Title: Titthayara Bhavna
Author(s): Pranamyasagar
Publisher: Unknown

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Page 168
________________ नहीं कहला सकते हैं। जानते हो भव्यात्मन् ! ऐसा क्यों? क्योंकि उनके परिग्रह का त्याग आजीवन के लिए नहीं है। एक रात के लिए सामायिक करने तक के लिए ही उन्होंने वस्त्र त्याग किया है। वस्त्र पास में रखे हैं, सुबह होते ही इन वस्त्रों को पहनूँगा, यह भाव भी भीतर है। इसी कारण से उनको संयम भाव नहीं हो सकता है। हे स्वाध्यायरसिक! वस्तु से बंध नहीं होता है, यह सत्य है किन्तु वस्तु त्याग के बिना आत्मा निर्बन्ध नहीं होता है, यह भी उतना ही सत्य है। बाहरी परिग्रह के त्याग से आत्मा में कषाय का अभाव हो भी सकता है और नहीं भी हो सकता है। यह अनिश्चितता(risk) का सौदा है किन्तु यह हमेशा ध्यान रखना कि बाह्य परिग्रह के त्याग बिना अन्तरङ्ग में संयम भाव त्रिकाल में कभी नहीं होगा। व्यापार करने के लिए पूंजी लगानी पड़ेगी। पूंजी लगाने से लाभ हो या न हो, यह बाद की बात है। किन्तु व्यापार करने की शर्त तो यही है कि बाजार में आओ, दुकान खोलो, पूंजी लगाओ। व्यापार चलना या न चलना तो और दूसरे कारणों पर निर्भर करता है। सेठ बनना, न बनना तो बाद की बात है। यह रिस्क संयम मार्ग में भी है। यदि दुकान खोले बिना ही सेठ बने बैठे हो, तो फिर दुकान खोलने की जरूरत ही क्या है? इसी तरह बाहर के कपड़े खोले बिना भीतर से तीर्थंकर को सातवाँ गुणस्थान हो जाता है तो फिर उन्हें गृह त्याग की जरूरत ही क्या है? हे निश्चयैकान्तवादिन् ! अभी भी सँभल जा। उलटी दुकान मत चला। उलटी गंगा के बहाव में मत फँस। समयसार पढ़कर यदि बुद्धि उलटी चलने लगी है तो कोई बात नहीं। डर मत। कुछ देर के लिए समयसार की जगह द्रव्यसंग्रह का अध्ययन कर। रत्नकरण्ड श्रावकाचार और पुरुषार्थ सिद्ध्युपाय का अध्ययन कर। द्रव्यसंग्रह में आचार्य देव कहते हैं कि व्रत, समिति, गुप्ति यह सब व्यवहार चारित्र है। बाद में निश्चय चारित्र की परिभाषा कहते हैं। बाह्य, अभ्यन्तर क्रियाओं का रुक जाना निश्चय चारित्र है। आचार्य अमृतचन्द्र जी, जो कि समयसार, प्रवचनसार आदि ग्रन्थों की टीका करने वाले महान् आचार्य हैं, वह भी प्रवचनसार में कहते हैं कि हे र पंचाचार ! मैं तुम्हारी शरण में तब तक रहता हूँ.जब तक कि मझेशद्धात्मा की उपलब्धि रूप निश्चय चारित्र की प्राप्ति न हो जावे। इतने बड़े महान् आध्यात्मिक आचार्य इस व्यवहार चारित्र की शरण माँग रहे हैं। व्यवहार चारित्र से ही भीख माँग रहे हैं कि इस आत्मा को तब तक इस व्यवहार की शरण मिले जब तक कि निश्चय चारित्र की प्राप्ति न हो जावे। इससे स्पष्ट होता है कि व्यवहार चारित्र की शरण लिए बिना निश्चय चारित्र की शरण नहीं मिलती है। इतने बड़े आचार्यों के स्पष्ट कथनों को भुलाकर भी हठाग्रह से यदि अपनी मान्यता नहीं छोड़ोगे तो तीव्र मिथ्यात्व का बन्ध ही होगा। घोर श्वभ्रसागर में चिरकाल तक रोना पड़ेगा। इसलिए स्पष्ट जानो कि भीतर का गुणस्थान बाह्य संकल्प के बिना नहीं बनता है और भीतर-बाहर का यह चारित्र व्यवहार चारित्र है। आत्मा में कषाय का अभाव होना निश्चय चारित्र नहीं अपितु व्यवहार चारित्र ही है। इसलिए व्यवहार चारित्र ऊपर-ऊपर से नहीं है, भीतर से है। व्यवहार चारित्र वास्तविक है। सत्य है। आत्मा में कषाय के अभाव से छठवाँ-सातवाँ गुणस्थान बना रहना भी व्यवहार चारित्र है। आत्मा की अप्रमत्त गुणस्थान की विशुद्धि भी व्यवहार चारित्र है। इस विशुद्धि को निश्चय चारित्र मानने की भूल मत करो। निश्चय चारित्र शुद्धोपयोग की दशा में होता है। शुद्धोपयोग तो ध्यान की अवस्था में होता है जो केवलज्ञान का कारण बनता है।

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