________________
नित्य भावना उत्साहित हो करे व्रती व्रत-शीलों की लेखा-जोखा साफ-साफतो बहेधारगुण-झीलों की॥५॥
अन्वयार्थ :[पुण] तथा [जो] जो [सस्सस्स] फसल के [परिधाणी इव] बाढ़ की तरह [वदस्स] व्रतों के [सीलाणि ] शीलों [ रक्खदि] रक्षा करता है [ सो] वह [ सीलवदे] शील, व्रतों में [अणइचारो] अतिचार रहित होता है।
भावार्थ : जैसे फसल की रक्षा करने के लिए उसके चारों ओर बाड़ी लगाई जाती है उसी प्रकार व्रतों की रक्षा के लिए शीलव्रत का पालन किया जाता है। गृहस्थों के लिए पांच अणुव्रत के अलावा सात शीलवत होते हैं। तीन गुणव्रत
और चार शिक्षाव्रत ये सप्त शीलवत हैं। मुनिराज अठारह हजार शील के स्वामी हैं। व्रती जीव बाहर से शीलव्रतों की रक्षा करता है और भीतर से व्रतों की भावना करके व्रतों को निर्दोष रखता है।
महाव्रती हो या अणुव्रती, प्रत्येक को व्रत की भावना से अपने अहिंसा आदि महाव्रतों को दृढ़ करना चाहिए। व्रतों की दृढता करने के लिए पाँच-पाँच भावनाएँ निरन्तर भाने की प्रेरणा आचार्यों ने दी है। यहाँ मात्र अहिंसा व्रत की भावना का विचार करते हैं।
हे संयमी आत्मन् ! अहिंसा व्रत की भावना के लिए अपनी आत्मा को मानसिक असंयम से बचाओ। गुप्ति का अर्थ है, रक्षा करना। मन गुप्ति का पालन अहिंसा की प्रथम भावना है। आत्मा की रक्षा मन के पाप से करना मन गुप्ति है।
__ यदि तुम अहिंसक भावों से बढ़ना चाहते हो तो मन में आने वाले अशुभ परिणामों को रोको। कभी यह मत समझना कि मन को कोई नहीं पकड़ सकता है इसलिए मन के भावों को कैसे रोका जा सकता है? मन में उत्पन्न होने वाले अशभ भावों को इसी मन गप्ति की भावना से रोका जा सकता है। यदि ऐसा सम्भव न होता तो कोई भी मन गुप्ति रख ही नहीं सकता। आचार्यों ने कहा है कि व्रती मन को अशुभ भावों से रोककर अपनी रक्षा करता है। ज्ञानी आत्मन् ! यह भी जानो कि आत्मा कर्ता है, मन कर्ता नहीं है। मन तो आत्मा से ही प्राप्त हुआ एक ज्ञानोपकरण है। हमारे भावों का मुख्य संचालक आत्मा है। इसलिए जो साधक आत्मा की पाप से रक्षा करता है, वह मन को वश कर लेता है।
आओ हम जानें कि वे अशुभ परिणाम कौन से हैं? जिनमें मन सहज चला जाता है
१. मन को आर्तध्यान से बचाओ- जिससे अपने मन में पीड़ा हो, दुःख हो वह ध्यान आर्तध्यान है। इस आर्तध्यान का कारण इष्ट बन्धु-मित्र आदि का संयोग होकर वियोग होना है। गृहस्थ श्रावक के लिए तो यह आर्तध्यान बहुत अधिक होता है। इसका कारण है कि वह दूसरे लोगों से और जड़ पदार्थों से भी अपने को जोड़ता चला जाता है। नये परिचय, नये लोगों से सम्बन्ध, नए-नए लोगों से जुड़ना इस आर्तध्यान का मुख्य कारण है। यदि साधक भी इन्हीं सम्बन्धों में पड़कर अपना मन रमाता है तो वह कभी भी आर्तध्यान से बच नहीं सकता है। राग की तीव्रता से किसी के आने पर या मिलने पर बहुत हर्षित होता है तो उस व्यक्ति के चले जाने पर उसे कुछ खिन्नता भी होगी। बस! यही खिन्नता आर्तध्यान है। उस व्यक्ति के चले जाने पर कुछ देर तक उसकी याद आना भी आर्तध्यान है।