________________
अहो! धन्य हो जैन श्रावको! तुम्हारे धन दान के बिना न श्रावकों को धर्म करने के लिए जिनमन्दिर मिल सकते हैं और न मुनियों का दर्शन । मुनियों का आहार-विहार सब श्रावक के द्वारा ही होता है। कितना बड़ा मौका तुम्हें मिला है। इसीलिए तुम्हारी प्रशंसा केवल हम जैसे मुनि ही नहीं बड़े-बड़े आचार्यों ने की है। देखो ! आचार्य पद्मनन्दि महाराज कहते हैं
सम्प्रत्यत्र कलौ काले जिनगेहे मुनिस्थितिः। धर्मश्च दानमित्येषां श्रावका मूलकारणम्॥
६/६ प.पंच. अर्थात् इस समय यहाँ कलिकाल में मुनियों का निवास जिनालय में हो रहा है और उन्हीं के निमित्त से धर्म, दान की प्रवृत्ति है। इस प्रकार मुनियों की स्थिति, धर्म और दान इन तीनों के मूल कारण गृहस्थ श्रावक हैं।
गृहस्थ श्रावक! तू भी अपने अन्दर जैन श्रावक होने का गौरव कर। अभिमान मत कर। दीन-हीन भी मत बन। गौरव से उत्साह उत्पन्न होता है, स्वाभिमान आता है। विचार कर कैसे गृहस्थी की आपाधापी के बीच में भी धर्म हो जाए। तझे विचारने की जरूरत भी नहीं है क्योंकि जब स्वयं भगवान ने गृहस्थ श्रावक को धर्म का पहल बना दिया है तो उन्होंने ही क्या करने योग्य है, यह भी बताया होगा। तुम्हें अपनी तरफ से कुछ भी सोचने की जरूरत नहीं है। किसी गृहस्थ की, असंयमी की वाणी को नहीं सुनना मात्र जिनवाणी को सुनना।
___ अरे जिनमाता के लाल! तेरे पालने के लिए भी छह आवश्यक कार्य बताए हैं और तू जिन्हें पालेगा उन श्रमणों के लिए भी छह आवश्यक कार्य कहे हैं। तू अपने करने योग्य कर्तव्य को सुन।
देवपूजा गुरूपास्तिः स्वाध्यायः संयमस्तपः। दानं चेति गहस्थाणां षटकर्माणि दिने दिने॥
प.पंच.६/७. अर्थात् सबसे पहला कर्तव्य देवपूजा है। दूसरा गुरु की उपासना है। तीसरा स्वाध्याय है। चौथा संयम है। पाँचवाँ तप है और छठवाँ दान है। गहस्थों के लिए यह छह कर्म प्रतिदिन करने योग्य हैं।
अहो धन्य श्रावक! सुबह जल्दी उठ। समस्त धार्मिक कार्य प्रभात बेला में ही किए जाते हैं। सुबह ही धर्म कार्य में मन लगता है। बाद में बहुत सा दिन व्यतीत हो जाने पर मन्दिर में दर्शन करने में भी मन नहीं लगता है। इसलिए आलस्य छोड़कर सर्वप्रथम स्नान आदि से निवृत्त होकर मन्दिर में जा।
स्नान करने में,शरीर शुद्धि करने में अनेक जलकायिक जीवों की तो हिंसा साक्षात् तुम कर ही रहे हो। यदि वह जल छना नहीं है तो असंख्य त्रस जीव की हिंसा का भी पाप लग रहा है। जब साबुन, सोडा लगाकर अपने वस्त्र और शरीर को धोते हो तो सारा जल तीक्ष्ण तेजाब के समान नाली में बहकर जाता है। वहाँ नाली में, शौचालय में रहने वाले बड़े-बड़े त्रस जीव उस पानी के द्वारा मर जाते हैं। तड़फ-तड़फ कर अपने प्राण छोड़ जाते हैं। विचार कर! तेरे स्नान मात्र से कितने जीवों की हिंसा हो रही है। यह हुई व्यवहार हिंसा। इस हिंसा का पाप आत्मा को लगता है। ऐसे पाप से मलिन आत्मा जब अपने नहाने के बाद शरीर को शृंगारित करता है, सजाता है तो उस शृंगार