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से तूने शॉर्ट(short) कर दिया। अरे! मुनिभ्रात! धर्म में शॉर्टकट(shortcut) नहीं होता है। जिस प्रतिक्रमण के विषय में आचार्य कुन्दकुन्द देव ने कहा है कि यह प्रतिक्रमण स्वाध्याय, आलोचना, वन्दना आदि सब कुछ है, उस प्रतिक्रमण को रे भ्रात! तू भावों से, एकाग्रचित्त होकर पूर्ण विधि से कर । वन्दना को दिखाने के लिए नहीं अपितु स्वरूप देखने के लिए कर । यदि वन्दना नहीं करेगा तो आचार्य या साधु संग मिथ्यादृष्टि समझेंगे, इस भय से वन्दना मत कर । वन्दना को संघ की ऋण मुक्ति का कार्य मत समझ। अरे भ्रात! वन्दना के बत्तीस दोषों को टालकर जिनेन्द्र देव की आराधना करो। इसी तरह सामायिक में समय नहीं आत्मा देखो। इन क्रियाओं से ही मुनिजीवन अन्तिम समय तक बना रह पाएगा। अन्यथा जिस की कंपनी में काम करो और ड्यूटी(duty) पूरी न करो तो या तो कंपनी छोड़कर जाना पड़ेगा, या फिर जीवन गुजारने का वेतनमान पूर्ण नहीं मिलेगा। इन क्रियाओं में हीनता का फल ऐसा मिलेगा कि या तो यह पद छोड़ना पड़े; ऐसे कर्म उदय में आएँगे अथवा जैसे-तैसे पराश्रित होकर इस पद का निर्वाह करने के लिए विवश होना पड़ेगा।
जिनाज्ञा छूटने से सम्यक्त्व छूट जाता है और सम्यक्त्व छूटने से चारित्र टूट जाता है। अरे श्रमण! लौकिक असंयमी लोगों से आत्म-प्रशंसा सुनने के लिए अपने आवश्यकों में कमी मत करो। ज्ञानी जन जिसकी
| न करें ऐसी क्रिया या चर्या से बचना ही श्रेयस्कर है। आत्म प्रशंसा साधक की साधना में बाधक भ्रम है। आत्म प्रशंसा सुनने का रोग उन्हीं के भीतर होता है जिन्हें आत्म विश्वास नहीं होता है। आत्मा का विश्वास बढ़ाओ, आत्मा की रुचि रखो। चारित्र मोहनीय कर्म के उदय में आत्म प्रशंसा के भाव होते हैं। इस कर्मोदय को जीतकर चारित्राराधना में मन लगाओ। अपने चारित्र का स्वाभिमान रखने वाला ही मुनि होता है।
और भी महत्त्व की बात करते हैं
आवस्सय परिचत्तं समणं जदि सावगोत्थ पूजेदि। सो वि धम्मविमुक्को जिणधम्मपरामुहो होदि॥ ४॥
सामायिक, वन्दन आदिक जो श्रमण नहीं नित करता है उसको भेष मात्र से लख यदि श्रावक पूजा करता है। धर्म रहित का पूजक जन भी धर्म रहित हो जाता है भाव रहित, अज्ञानी जन वो भव वन में खो जाता है॥४॥
अन्वयार्थ : [आवस्सय परिचत्तं] आवश्यकों से रहित [समणं] श्रमण को [जदि] यदि [अत्थ] यहाँ [ सावगो ] श्रावक [ पूजेदि] पूजा करता है [ सो ] वह [वि हु ] श्रावक भी निश्चय से [ धम्मविमुक्को ] धर्म से रहित [ जिणधम्मपरामुहो] जिन धर्म के विपरीत [ होदि] होता है।
भावार्थ : श्रावक! तू भी सावधान रह। मोह से, अपने स्वार्थ से यदि तू ऐसे श्रमण की पूजा-प्रशंसा में लगा है जो अपनी आवश्यक क्रियाएँ नहीं कर रहा है तो तू भी उस श्रमण की धर्म विराधना में निमित्त है। तू यह मत सोच कि उनका धर्म वह जाने। अपने को तो उनका गुणगान करना ही श्रेष्ठ है। श्रावक! श्रमण की साधना को बिगाड़ने