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अरे श्रावक! तू अपना दर्जा देख। तुझे हक ही क्या है कि ऐसे मुनीश्वर को देखकर तू इस प्रकार सोचे। तेरी आँखों में इतनी हिम्मत कहाँ जो उनसे आँख मिला सके। आज भी ऐसे मुनीश्वर हैं जिनको देखकर उनके चरणों में दृष्टि लगाए रखने का मन होता है।
श्रमण छह काल के द्वारा अपने जीवन का विभाजन करते हैं। दीक्षा काल, शिक्षा काल, गणपोषण काल, आत्मसंस्कार काल, सल्लेखना काल और उत्तमार्थ काल इन छह कालों से अपने जीवन को यथायोग्य व्यवस्थित बनाने वाले श्रमण रत्नत्रय की साधना के लिए आवश्यक क्रियाओं को करते हैं। जीवन पर्यन्त तक इस तरह काल का विभाजन करके रत्नत्रय की आराधना करने वाले श्रमणों को बारंबार नमस्कार करता हूँ जिससे हमारी आवश्यक क्रियाओं में कभी भी द्रव्य से और भाव से हानि न हो।
आचार्य श्री वीरसेन जी महाराज ने श्री धवला में कहा है कि इस एक भावना में अन्य पन्द्रह भावना भी गर्भित हैं। वहाँ इस प्रकार लिखा है
आवश्यकों में अपरिहीनता से ही तीर्थंकर नाम कर्म बंधता है।समता, स्तव, वन्दना, प्रतिक्रमण, प्रत्याख्यान और व्युत्सर्ग के भेद से छह आवश्यक होते हैं।
शत्रु-मित्र, मणि-पाषाण और सुवर्ण-मिट्टी में राग द्वेष के अभाव को समता कहते हैं।
अतीत, अनागत और वर्तमान काल विषयक पाँच परमेष्ठियों के भेद को न करके अरहन्तों को नमस्कार, जिनों को नमस्कार इत्यादि द्रव्यार्थिक निबन्धन नमस्कार का नाम स्तव है।
ऋषभ, अजित, सम्भव, अभिनन्दन, सुमति, पद्मप्रभ, सुपार्श्व, चन्द्रप्रभ, पुष्पदन्त, शीतल, श्रेयांस, वासुपूज्य, विमल, अनन्त, धर्म, शान्ति, कुन्थु, अर, मल्लि, मुनिसुव्रत, नमि, नेमि, पार्श्व और वर्धमान आदि तीर्थंकर तथा भरतादिक केवली आचार्य एवं चैत्यालयादिकों के भेद को करके अथवा गुणगत भेद के आश्रित, शब्दकलाप से व्याप्त गुणानुराग स्मरण रूप नमस्कार करने को वन्दना कहते हैं।
चौरासी लाख गुणों के समुह से संयुक्त, पांच महाव्रतों में उत्पन्न हुए मल को धोने का नाम प्रतिक्रमण है।
महाव्रतों के विनाश व मलोत्पादन के कारण जिस प्रकार न होंगे, वैसा करता हूँ, ऐसी मन में आलोचना करके चौरासी लाख व्रतों की शुद्धि के प्रतिग्रह(प्रतिज्ञा) का प्रत्याख्यान है।
शरीर और आहार विषयक अशुभ मन एवं वचन की प्रवृत्तियों को हटाकर ध्येय वस्तु की ओर एकाग्रता से चित्त का निरोध करने को व्युत्सर्ग कहते हैं।