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के लिए ही किया जाता है।
धर्म ध्यान गृहस्थ भी कर सकता है और मुनि भी करता है। धर्म ध्यान के चार भेद हैं- आज्ञा विचय, अपाय विचय, विपाक विचय और संस्थान विचय। ये चारों ही धर्म ध्यान अविरति सम्यग्दृष्टि आदि उपरिम गुणस्थानों में होते हैं। धर्म ध्यान का पात्र कोई भी शान्तिप्रिय और शक्तिशाली, धीरज व्यक्ति हो सकता है। आज्ञा विचय आदि चार भेद ध्येय की अपेक्षा से हैं। गुणस्थानों की अपेक्षा इन चार भेदों का विभाजन नहीं है।
__ और सुनो! विचय नाम चिन्तन का है। भगवान् के द्वारा उपदिष्ट छह द्रव्य, सात तत्त्व या अन्य भी प्रच्छन्न विषयों का चिन्तन करना आज्ञा विचय धर्मध्यान है। प्रच्छन्न विषय द्रव्य, काल, भाव की अपेक्षा से चार प्रकार का है। कालाणु द्रव्य प्रच्छन्न है। अलोकाकाश क्षेत्र प्रच्छन्न है। अनागत काल काल प्रच्छन्न है। प्रति समय उत्पन्न होने वाली षट गणी हानि वृद्धि से सहित अर्थ पर्याय भाव प्रच्छन्न है। ये प्रच्छन्न विषय केवली गम्य हैं। इनका यथार्थ श्रद्धान ही आज्ञा विचय धर्मध्यान है।
इस जगत् में प्रत्येक आत्मा मिथ्यादर्शन, ज्ञान, चारित्र से दु:खी है, उनके दुःख का चिन्तन करना या उनके दुःख दूर होने का उपाय क्या है? यह चिन्तन करना अपाय विचय धर्मध्यान है। यह अपाय विचय अविरति सम्यग्दृष्टि आदि कोई भी जीव करता है। सम्यक्त्व की उत्पत्ति होने से ही यह धर्मध्यान होता है।
कर्मों के द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव की अपेक्षा से उदय और उदीरणा विपाक का चिन्तन करना विपाक विचय धर्मध्यान है। यह कर्म विपाक का चिन्तन दुःखी नारकी भी करता है। कष्ट के समय हे साधक! इसी धर्मध्यान का चिन्तन करके समता की आराधना करना।
अंजना, सीता, पाण्डव, राम जैसे महापुरुषों ने इसी धर्मध्यान से अभाव के समय में भी अपने परिणामों को निराकुल रखा था। ऐसे महापुरुषों के जीवन की कथा स्मरण करना भी विपाक विचय धर्मध्यान है।
जो जीव विपाक विचय धर्मध्यान में अभ्यस्त होता है, वही संस्थान विचय धर्मध्यान का अधिकारी होता है। यह चारों ही ध्यान क्रमशः वृद्धि को प्राप्त होते हैं। साधक क्रम-क्रम से यदि इन ध्यानों को करता है तो वह कर्म निर्जरा को बढ़ाता चला जाता है।
संस्थान विचय धर्मध्यान में लोक के आकार का, और लोक में आधेयभूत द्वीप, सागर आदि का चिन्तन करना संस्थान विचय धर्मध्यान है।
संस्थान विचय के ही पिण्डस्थ, पदस्थ, रूपस्थ और रूपातीत भेद हैं। सो पिण्डस्थ और पदस्थ भेद सभी श्रावकों के लिए करने योग्य हैं।
नित्य प्रतिदिन इन आवश्यकों से जो धर्मध्यान में निरत रहता है, वही धर्म का पालन करता है।