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भी तुम सुनासुनी ऐसी बातों को करने लग जाते हो, यह गृहीत मिथ्यात्व है ।
सुनो ! भावलिङ्गी का मतलब है जिनका छठवाँ, सातवाँ गुणस्थान हो, ऐसे मुनिराज । अब तुम बताओ कि कौन से शास्त्र में गुणस्थान देखने के लिए कहा है? कौन से शास्त्र में गुणस्थान को पहचानने की विधि बताई है ? आगम का ज्ञान न होते हुए भी इस प्रकार की धारणा बना लेना या इसी प्रकार की रट लगाते रहना तो अपनी हठ ग्राहिता है। यह तो ऐसी ही बात हुई कि एक बार एक व्यक्ति ने हठ पकड़ ली कि दो और दो पाँच होते हैं। उस व्यक्ति को कई लोगों ने समझाया परन्तु वह नहीं माना। अन्त में बात राजा के पास पहुँच गई। राजा ने कहा कि कल राजसभा में निर्णय होगा। यदि इसकी बात सिद्ध न हुई तो इसे प्राणदण्ड दिया जाएगा । उस व्यक्ति को उसकी पत्नी ने समझाया कि तुम मान लो कि हम गलत बोल रहे हैं, नहीं तो मैं कल विधवा हो जाऊँगी । तुमसे अपने प्राणों की भीख माँगती हूँ। वह व्यक्ति अपनी स्त्री को समझाते हुए बोला तू व्यर्थ में रो रही है? राजा के पास दो और दो चार सिद्ध करने की कोई मशीन तो है नहीं । रही बात प्राणदण्ड की सो वह तो तब देगा जब मैं मानूँ कि दो और दो पाँच नहीं होते हैं।
बस ऐसी ही हठ पकड़कर कुछ लोग बैठे हैं कि आज कल भावलिङ्गी मुनि नहीं होते हैं ।
कोई ऐसे मुनिराज भी हो सकते हैं जिनका गुणस्थान अन्तर्मुहूर्त के लिए छठवें से पाँचवाँ हो गया, उन्हें पता भी नहीं है, तो अन्तर्मुहूर्त के लिए वह द्रव्यलिङ्गी हुए। एक अन्तर्मुहूर्त के बाद पुन: सातवाँ गुणस्थान हो गया। ऐसी स्थिति में कैसे कोई जान सकता है कि यह द्रव्यलिङ्गी हैं या भावलिङ्गी । गुणस्थान का भान स्वयं श्रमण को भी नहीं होता है। मान लो आहार करते-करते उनका गुणस्थान थोड़े समय के लिए पाँचवाँ हो गया तो तुम क्या उन्हें आहार देना बन्द कर दोगे? इस गुणस्थान को अनुमान लगाने का कोई साधन नहीं है। आहार उपरान्त जैसे ही बैठे, कायोत्सर्ग किया उनका गुणस्थान पुन: सातवाँ हो गया। ऐसी स्थिति में श्रावक को आहार दान देने में दोष लगा हो या पाप लगा हो, या उस समय गुणस्थान गिरने से द्रव्यलिङ्गी हो जाने पर नमोऽस्तु कर लेने से कोई अपराध हो गया हो, ऐसा किसी भी आगम में नहीं कहा है ।
एक श्रमण भी जब दूसरे श्रमण से समाचार करता है तो उसकी समिति में प्रवृत्ति, परिग्रह आदि से रहितता और जिन वन्दना आदि क्रियाओं में रुचि रखकर ही करता है । इसलिए इन छह आवश्यका क्रियाओं में समय पर संलग्न होना तीर्थंकर प्रकृति जैसे महान् पुण्य बंध का कारण है।
गुणस्थान का बदलना कोई आवश्यक नहीं है। जो व्रत संकल्पपूर्वक ग्रहण किये हैं, उनको जब तक मानसिक संकल्प से तोड़ा नहीं जाता तब तक गुणस्थान नहीं गिरता है। इसलिए ही ८ वर्ष अन्तर्मुहूर्त में दीक्षा लेकर पूर्व कोटि काल तक निरन्तर संयम भाव में रहकर मुनिराज तपस्या करते हैं। वह भी षट् आवश्यक क्रियाओं से अपना भावलिङ्ग बनाए रखते हैं। इसलिए आत्मन् ! गुणस्थान गिरना कोई बालक का खिलौना जैसा नहीं है कि गिरा और टूट गया। जब एक पूर्व कोटि काल तक गुणस्थान छठवाँ - सातवाँ बना रह सकता है तो कुछ वर्षों तक अक्षुण बना रहे, इसमें आश्चर्य क्या? जो मुमुक्ष श्रमण अपने व्रतों में सावधान हैं, विकथाओं से दूर रहकर सम्यग्ज्ञान की आराधना से मन को एकाग्र और विशुद्ध रखते हैं उनके बारे में द्रव्यलिङ्ग और भावलिङ्ग जैसे शब्दों का सोचना भी पाप है। श्रावक का इस विषय में किसी भी श्रमण को देखकर शंकातुर होना जघन्य अपराध है 1