Book Title: Titthayara Bhavna
Author(s): Pranamyasagar
Publisher: Unknown

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Page 161
________________ तर्क और सोच के लिए मना इसलिए है कि, इन उलझनों में तो हम पहले ही उलझे हैं इसलिए तर्क वितर्क से कुछ सीखने में समय बर्बाद न करके हम चलते हैं उस पथ पर जो अब तक अछूता है या जिसको पाकर के भी हम उसका समुचित उपयोग न कर पाए। ऋषि महात्माओं ने जिस मार्ग को स्वयं अपनाया उसी पर चलने के लिए सदा-सदा ही गृहस्थों को भी प्रेरित किया है। कई मनीषियों का विचार है कि श्रावक के षट् कर्म' यह एक अर्वाचीन(नई) पद्धति है। प्राचीन परंपरा तो वही है जो मुनियों की है। श्रावक भी मुनि की तरह षट् आवश्यकों का पालन करता था। पर धीरे-धीरे व्यस्तता बढ़ी, प्रभावना में उतार चढ़ाव आये। श्रावक इन आवश्यकों से दूर हो गया और आचार्यों ने सम-सामयिकता को ध्यान में रखते हुए देव पूजा आदि षट् कर्म का नियम बना दिया। आज की स्थिति में वे जैनी भाई बहुत कम बचे हैं, जो इन षट्कर्मों या षट् आवश्यकों का बखूबी पालन करते हों। परिणाम! मानसिक तनाव, हृदय आघात, केन्सर, ब्रेन हेमरेज, ट्यूमर, डायबिटीज, मोटापा, हाई ब्लडप्रेशर आदि अनेक प्रकार के शारीरिक और मानसिक रोगों को आमंत्रण। विज्ञान चाहे कितना ही तकनीकी विकास कर ले, चाहे कितना ही आसमान में उड़ाने भर ले, चाहे कितनी ही सुविधायें जुटा ले, चाहे जितना अन्तरिक्ष में आवास बना ले, पर सुख की खोज में उसे लौटना होगा, अन्ततोगत्वा अपने में लौटना होगा, अपने में संतुष्ट होना होगा और अपने तक ही सीमित। जो लोग धर्म से डरते हैं या धर्म करने में हिचकते हैं या जो धर्म में रुचि रखते हैं, उन सबके लिए यह छह कार्य प्रतिदिन आवश्यक रूप से करने योग्य हैं। सुखी जीवन के यह छह सूत्र हैं। प्रथम सूत्र स्तवन/स्तुति- अर्थात् अपने से ज्यादा शक्तिमान, स्वस्थ और निर्दोष व्यक्तित्व की ओर दृष्टिपात। इस फॉर्मले को आप अपनायें क्योंकि चिन्ता प्रत्येक मानवीय मस्तिष्क का एक रोग है। इस चिन्ता से बचने के लिए उस चेतना को याद करें, जो सुपर है, जिससे बढ़कर कोई नहीं। चेतना, एक शक्ति का स्रोत है, जो सबके अन्तस् में विद्यमान है। स्तुति करने से हम निराशा, विषाद, अवसाद और अनिद्रा जैसी स्थितियों पर नियंत्रण कर सकते हैं। जब हम परेशान होते हैं तो हमारी शक्ति का अपव्यय होने लगता है। उसे रोकें और उसे रोकने का सबसे आसान तरीका है पंच परमेष्ठी की पूजा, स्तुति, उनके गुणों का आह्लादित होकर गुणगान करना, भक्ति करना, जोर से स्तुति पढ़ना। एक-एक करके चौबीस तीर्थंकरों का गुणगान, उनके सहस्र नाम का उच्चारण । आस्था और लगन के साथ अपने को उस महाचैतन्यवान/शक्तिमान सत्ता के प्रति समर्पित कर देना। हम बिना आस्था के जी नहीं सकते। हममें से हर एक की कहीं न कहीं आस्था रहती है। यह आस्था एक शक्ति है, इस शक्ति को मोड़ दें उस मूर्ति की तरफ जो शान्त है, जिसकी मुख मुद्रा में अनेकों रहस्य छिपे हैं। जिसकी आँखें अब इस विश्व की ओर देखने के लिए नहीं उठती हैं। जिसने सब कुछ कर लिया है इसलिए हाथ पे हाथ रखे बैठा है, जिसे कहीं नहीं जाना है, जो स्थिर है, जिसमें काम नहीं, वासना नहीं, चिन्ता नहीं, मान-अपमान का एहसास नहीं, उस वीतराग निर्विकार के चरणों में भक्ति की आस्था से भर जाना। किसी ने कहा है कि-"आस्था उन शक्तियों में से एक है जिसके द्वारा मनुष्य जीवित रहते हैं, और इसके पूर्ण अभाव का अर्थ है धराशायी हो जाना।" दूसरा सूत्र है- प्रार्थना, वन्दना अर्थात् बन्ध ना- जब हम चौबीस तीर्थंकरों की थोड़ी स्तुति से सबके गुणों

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