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में कभी निमित्त नहीं बनना। श्रमण को विचलित करने में कारण नहीं बनना। श्रमण को अपने स्नेह से रागी नहीं बनाना। श्रावक ! यह पाप दोनों के ले डूबेगा। वर्तमान में श्रमण को श्रावक के बीच रहना पड़ता है। ऐसे बहुत से श्रमण नादानी में ऐसे श्रावकों के कारण श्रमण धर्म छोड़ देते हैं। यह उस श्रमण के पाप कर्म का तीव्र उदय तो है ही किन्तु इस कलिकाल में कर्मोदय में निमित्त ऐसे स्वार्थी श्रावक भी बन रहे हैं।
जो श्रावक यह जानता है कि यह मुनि आचार्य की आज्ञा के विपरीत चल रहा है, संघ की निन्दा करता है फिर भी वह श्रावक यदि उस श्रमण से अत्यधिक सम्बन्ध रखता है, तो वह श्रावक भी धर्म रहित है। जिनाज्ञा से विपरीत श्रमण की सेवा, शुश्रुषा में अत्यधिक रुचि रखने वाला श्रावक भी जिनधर्म से रहित है।
श्रावकबन्धो ! जीवन में कोई पुण्य कार्य कर पाओ या न कर पाओ, इससे कोई दुगर्ति नहीं होगी किन्तु किसी को मार्ग से पतित करने में निमित्त बने तो अवश्य दुर्गति होगी। इसीलिए आचार्यों ने सावधान किया है कि
गृहस्थो मोक्षमार्गस्थो निर्मोहो नैव मोहवान्। अनगारो गृही श्रेयान् निर्मोहो मोहिनो मुनेः॥
रत्नकरण्ड श्रावकाचार
अर्थात् गृहस्थ यदि निर्मोही है तो मोक्षमार्ग पर स्थित है किन्तु साधु यदि मोही है तो वह मोक्षमार्ग पर स्थित नहीं है। इसलिए ऐसे साधु से तो वह निर्मोही गृहस्थ श्रेष्ठ है।
मोह के रूप विचित्र हैं। मोह साधु से भी राग उत्पन्न करा देता है। मोह साधु के साथ भी पाप भाव करा
मोह मिथ्यात्व को भी बढ़ा देता है। मोह अप्रभावना करा देता है। मोह किसी साधु से राग उत्पन्न कराके निर्दोष में भी दोष दिखा देता है। मोह के कारण मोही साधु श्रेष्ठ लगता है और निर्मोही महत्त्वहीन।
इस मोह की विचित्रता से श्रावक और श्रमण दोनों ही जिनधर्म से पराङ्मुख हो जाते हैं। ऐसे मोह को धिक्कार
हो।
आवश्यकों की विशेषता दिखाते हैं
अपमत्तो सो साहू अण्णं कजं दु वोसरित्ता जो।
परिपरदि आवस्संण हि सिग्धं दिग्घकाले वा॥५॥
क्वचित् कदाचित् यदि वह साधु अन्य कार्य में लग जाता अप्रमत्त वह सावधान हो उन्हें छोड़ निज में जाता। नहीं शीघ्रता आवश्यक के परण में वह कभी करे या विलम्ब भी यथाकाल का उल्लंघन कर नहीं करे॥५॥